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Sunday 21 December, 2008

आज उसे फिर देखा है, देखा है

पता नहीं क्यों आज शाम से ही मन उदास है, शायद उनकी याद में! आज अचानक उनकी झलक दिख गई, कुछ देर बाद भ्रम टूट गया, नहीं वो वो नहीं, कोई और ही...जब तुम नहीं थी तो मुझे तुम्हारे होने का अहसास क्यूं कर हुआ?
तुम्हारी इस झलक ने पता नहीं क्या क्या याद दिला दिया।
आज तुम्हे फिर देखा है- देखा है।




आज उसे फिर देखा है, देखा है -२
रोज किया करता था याद
लेकिन आज बहुत दिन बाद-२
गाँव के छोटे पनघट में-२
चांद सा चेहरा घूंघट में
मैने चमकते देखा है-२
आज उसे फिर देखा है, देखा है-२

शाम का बादल छाने को था
सूरज भी छुप जाने को था-२
उसके रूप के सूरज को जब
मैने उठते देखा है,
मैने उठते देखा है
आज उसे फिर देखा है, देखा है-२

नाम मुझे मालूम नहीं है
शर्मिली है कमसिन है वो-२
दिल की रानी बना चुका, बना चुका हूँ-२
कहने को पनहारिन है वो-२
एक नजर में दिल की दुनियां
मैने बदलते देखा है-२
आज उसे फिर देखा है
देखा है।

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(स्व. तलत महमूद को नमन, यह उनकी एक गैर फिल्मी रचना है। आपने कई सुन्दर गैर फिल्मी गीत- गज़लें गाई है। और कभी मौका मिला तो सुनाई जायेंगी। इस गीत के संगीतकार-गीतकार के बारे में जानकारी नहीं मिली अगर आप में से किसी को पता हो तो बतायें, ताकि इसे सुधारा जा सके)

Sunday 7 December, 2008

फ़िल्म ममता का लता जी आवाज में एक नायाब गीत

१९६६ की फ़िल्म ममता में संगीतकार रोशन ने बेहतरीन संगीत दिया था | इसी फ़िल्म का एक प्रसिद्ध गीत है "रहे न रहे हम" | इस गीत को रोशन साहब ने सचिन देव बर्मन के गीत "ठंडी हवाएं लहरा के आयें" की धुन पर बर्मन जी की सहमति से रचा था | लेकिन आज जो गीत हम आपके लिए लेकर आए हैं वो विशेष है | कव्वालियों के सरताज रोशन साहब ने "विकल मोरा मनवा" गीत में जितनी सरलता से लोक गीतों के शब्दों को लेकर ताना बाना बुना है वो बस सुनते ही बनता है |




हम गवनवा न जाइवे हो बिना झूलनी,
हम गवनवा न जाइवे हो बिना झूलनी...

अम्बुआ की डारी पड़ रही बुंदिया,
अचरा से उलझे लहरिया,
लहरिया...बिना झूलनी.
हम गवनवा न जाइवे हो बिना झूलनी,

सकल बन गगन पवन चलत पुरवाई री,
माई रुत बसंत आयी फूलन छाई बेलरिया
डार डार अम्बुअन की कोहरिया
रही पुकार और मेघवा बूंदन झर लाई..
सकल बन गगन पवन चलत पुरवाई री

विकल मोरा मनवा, उन बिन हाय,
आरे न सजनवा रुत बीती जाए,
विकल मोरा मनवा, उन बिन हाय,

भोर पवन चली बुझ गए दीपक
चली गयी रैन श्रृंगार की
केस पे विरह की धूप ढली
अरी ऐ री कली अँखियाँ की
पड़ी कुम्हलाई...
विकल मोरा मनवा....

युग से खुले हैं पट नैनन के मेरे
युग से अँधेरा मोरा आंगना
सूरज चमका न चाँद खुला
अरी ऐ री जला रही अपना,
तन मन हाय
विकल मोरा मनवा...

Wednesday 26 November, 2008

मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले मेरे पसन्दीदा कुछ गीत… (भाग-1)

सुरेश चिपलूनकर की कलम से... पहेली

Film Mother India, Mehboob, Nargis and Sunil Dutt
हिन्दी फ़िल्मों ने हमें हजारों मधुर गीत दिये हैं जिन्हें सुन-सुनकर हम बड़े हुए, इन्होंने हमारी भावनाओं पर राज किया है। हर मौके, माहौल और त्यौहार के लिये हमारी फ़िल्मों में गीत उपलब्ध हैं। इधर पिछले कुछ वर्षों में देखने में आया है कि हमारी फ़िल्मों से “गाँव” नाम की अवधारणा गायब होती जा रही है। गाँव की “थीम” या “स्टोरी” पर आधारित फ़िल्में मल्टीप्लेक्स के कारण कम होते-होते लगभग लुप्त ही हो गई है। फ़िल्म निर्माता और निर्देशक भी फ़िल्म की लागत तत्काल वसूलने और भरपूर मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में फ़िल्मों में गाँवों को पूरी तरह से नकारते जा रहे हैं। फ़िल्मों में गाँवों को दर्शाया भी जाता है तो बेहद “डिजाइनर” तरीके से और कई बार भौण्डे तरीके से भी। इस बात पर लम्बी बहस की जा सकती है कि फ़िल्मों का असर समाज पर पड़ता है या समाज का असर फ़िल्मों पर, क्योंकि एक तरफ़ जहाँ वास्तविकता में भी अब आज के गाँव वे पुराने जमाने के गाँव नहीं रहे, जहाँ लोग निश्छल भाव रखते थे, भोले-भाले और सीधे-सादे होते थे। “पंचायती राज की एक प्रमुख देन” के रूप में अब आधुनिक जमाने के गाँव और गाँव के लोग विद्वेष, झगड़े, राजनीति और जातिवाद से पूरी तरह से ग्रसित हो चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ़ कुछ “आधुनिक” कहे जाने वाले फ़िल्मकारों की मानसिकता के कारण ऐसी फ़िल्में बन रही हैं जिनमें भारत या भारत का समाज कहीं दिखाई नहीं देता। कोई बता सकता है कि “धूल का फ़ूल” के समय अथवा “दाग” फ़िल्म के समय तक भी “बिनब्याही माँ” की अवधारणा समाज में कितनी आ पाई थी? लेकिन उस वक्त उसे फ़िल्मों में दिखाकर समाज में एक “ट्रेण्ड” बनाया गया, ठीक वही मानसिकता आज “दोस्ताना” नाम की फ़िल्म में भी दिखाई देती है, कोई बता सकता है कि भारत जैसे समाज में “समलैंगिकता” अभी किस स्तर पर है? लेकिन “आधुनिकता”(?) के नाम पर यह अत्याचार भी सरेआम किया जा रहा है। जबकि असल में समलैंगिकता या तो एक “मानसिक बीमारी” है या फ़िर “नपुंसकता का ही एक रूप”। बहरहाल विषयान्तर न हो इसलिये “सिनेमा का असर समाज पर या समाज का असर फ़िल्मों पर” वाली बहस फ़िर कभी…

कई पुरानी फ़िल्मों में गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले बहुत सारे गीत पेश किये गये हैं, जिनमें गाँव के स्थानीय भाषाई शब्द बहुतायत से तो मिलते ही हैं, उनका फ़िल्मांकन भी ठेठ देसी अन्दाज में और विश्वसनीय लगने वाले तरीके से किया गया है। ऐसे की कुछेक गीत इस श्रृंखला में पेश करने का इरादा है, सौंधी मिट्टी की खुशबू वाले मेरे पसन्दीदा गीतों में सबसे पहला है फ़िल्म मदर इंडिया का गीत “गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…”। यह गीत फ़िल्म मदर इंडिया (1957) में सुनील दत्त पर फ़िल्माया गया है, गाया है मोहम्मद रफ़ी और शमशाद बेगम ने, लिखा है शकील बदायूंनी ने और ठेठ देसी संगीत दिया है नौशाद ने। पहले यह गीत सुनिये और देखिये, फ़िर इस पर बात करते हैं-









उल्लेखनीय है कि यह गीत भारतीय फ़िल्म इतिहास की सबसे महान फ़िल्म कही जाने वाली कालजयी “मदर इंडिया” का है, जिसके निर्देशक थे महबूब खान। कहा जाता है कि महबूब खान एकदम अनपढ़ थे और अक्सर बीड़ी पीते हुए सेट पर काम करने वालों से “तू-तड़ाक” की आम बोलचाल वाली भाषा में बात किया करते थे। लेकिन एक फ़िल्मकार के तौर पर उनका ज्ञान बहुत से पढ़े-लिखों से कहीं ज्यादा था। इस गीत को भी उन्होंने ठेठ गंवई अन्दाज में फ़िल्माया है। बैलगाड़ी की दौड़ अब धीरे-धीरे भारत में एक दुर्लभ दृश्य बन चुका है। मुझे नहीं पता कि कितने पाठकों ने बैलगाड़ी की सवारी का अनुभव लिया है, लेकिन जो व्यक्ति बैलगाड़ी या तांगे की सवारी कर चुका हो, उसे यह गीत बेहद “नॉस्टैल्जिक” लगता है। गीत में सुनील दत्त, हीरोईन (शायद यह मधुबाला की बहन हैं) से छेड़छाड़ करते दिखाया गया है, साथ में बैलगाड़ी की दौड़ भी चलती रहती है। उड़ती हुई धूल, पात्रों की ग्रामीण वेशभूषा, गीत के बोलों का सरलता लिये हुए प्रवाह और नौशाद की मस्ती भरी धुन, सब मिलकर एक समाँ बाँध देते हैं। महबूब और नौशाद की जोड़ी ने यादगार संगीत वाली फ़िल्में दीं, जैसे अनमोल घड़ी, अन्दाज़, आन और अमर। इस फ़िल्म के एक और गीत “दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा…” को नौशाद पहले शमशाद बेगम से ही गवाना चाहते थे, लेकिन अन्ततः शकील की मध्यस्थता से लता मंगेशकर से यह गवाया गया। गीत में गँवई शब्दों का बेहतरीन उपयोग किया गया है और चित्रांकन तथा फ़िल्म के माहौल में “तोसे”, “नथनी”, “डगरिया”, “लोगवा” जैसे धरतीपकड़ शब्द मिठास घोलते हैं… गीत के बोल कुछ इस प्रकार से हैं –

खट-खुट करती, छम-छुम करती गाड़ी हमरी जाये
फ़र-फ़र भागे सबसे आगे, कोई पकड़ ना पाये…
(खट-खुट और छम-छुम जैसे “रीयल” शब्दों का सुन्दर उपयोग)
ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे… (2)
जिया उड़ा जाये, लड़े आँख रे होय…(2)

(1) दिल खाये हिचकोले, गाड़ी ले चल हौले-हौले
बिन्दिया मोरी गिर-गिर जाये, नथनी हाले-डोले
हो, देख नजर ना लागे गोरी काहे मुखड़ा खोले
हो नैनों वाली घूंघट से ना झाँक रे…
गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…।

बीच में थोड़ी चुहलबाजी – अररररर, मोरी लाल चुनरिया उड़ गई रे,
मोरी कजरे की डिबिया गिर गई…

(2) हवा में उड़ गई मोरी चुनरिया, मिल गईं तोसे अँखियाँ
बलमा मिल गई तोसे अँखिया…
गोरा बदन मोरा थर-थर काँपे, धड़कन लागीं छतियाँ
रामा धड़कन लागी छतियाँ…
ओ, अलबेली बीच डगरिया ना कर ऐसी बतियाँ…2
हो सुने सब लोगवा, कटे नाक रे… हाय
गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…

खट-खुट करती, छम-छुम करती गाड़ी हमरी जाये
फ़र-फ़र भागे सबसे आगे, कोई पकड़ ना पाये…

कुछ बातें इस फ़िल्म के बारे में… फ़िल्म मदर इंडिया उस जमाने की “ब्लॉक बस्टर” हिट थी, जिसने उस समय 4 करोड़ का व्यवसाय किया था, जिस रिकॉर्ड को बाद में मुगले-आजम ने तोड़ा। मदर इंडिया से नरगिस ने यह भी साबित किया कि वह राजकपूर की फ़िल्मों के बाहर भी “स्टार” हैं, वैसे यह भी एक संयोग ही है कि नरगिस को महबूब ने ही सबसे पहले फ़िल्म तकदीर (1943) में साइन किया था, लेकिन फ़िर काफ़ी समय तक नरगिस सिर्फ़ राजकपूर की फ़िल्मों में ही दिखाई दीं। एक तरह से देखा जाये तो यह फ़िल्म राजकुमार, सुनील दत्त और राजेन्द्र कुमार तीनों के लिये ही पहली बड़ी सफ़लता थी। शुरुआत में सुनील दत्त का रोल तत्कालीन हॉलीवुड में काम करने वाले एक भारतीय “साबू” करने वाले थे, लेकिन डेट्स की समस्या के कारण सुनील दत्त इस फ़िल्म में आये और एक दुर्घटना में आग से बचाकर अपने से बड़ी उम्र की नरगिस का दिल जीता और बाद में जीवनसाथी बनाया। महबूब को सम्मान के तौर पर, फ़िल्म काला बाजार में देव आनन्द फ़िल्म मदर इंडिया के ही टिकट ब्लैक करते दिखाये गये हैं।
इस गीत को कभी भी सुना जाये, हमेशा यह सीधे गाँव में ले जाता है। जो मस्ती, भोलापन, अल्हड़पन और सादगी इस प्रकार के गीतों में है, वह आजकल देखने को नहीं मिलती, न अब वैसे गाँव रहे, न ही गाँव पर लिखने वाले प्रेमचन्द जैसे महान लेखक रहे, बदलते वक्त ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है… जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती।

(अन्त में पाठकों के लिये एक पहेली – इस श्रृंखला के अगले तीन गीतों के बारे में अपना-अपना अंदाजा बतायें, मैं देखना चाहता हूँ कि मेरी पसन्द किस-किस से मिलती है, Hint के तौर पर यही थीम है – “मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले मधुर गीत”)

नोट – “महफ़िल के सदस्य”, “यूनुस भाई”, “रेडियोनामा के सदस्य” और “संजय पटेल” जी इस पहेली प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते…   हाँ, इस गीत पर टिप्पणी अवश्य कर सकते हैं…
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ए दिल ए बेकरार जैसे भी हो गुजार : एक और दुर्लभ गीत

आईये आज आपको लता जी का एक और दुर्लभ गीत सुनवाते हैं। संगीतकार गुलाम मुहम्मद भी उन संगीतकारों में से एक थे जिन्होने लताजी की खूबसूरत आवाज का अपने संगीत में बहुत शानदार उपयोग किया। लता के शुरूआती दिनों में आगे गीतों में उनकी आवाज में एक अलग ही तरह की कशिश है, आईये सुनकर ही अनुभव कीजिये।
फिल्म मांग 1950
संगीतकार: गुलाम मुहम्मद
गीतकार सगीर उस्मानी (इस फिल्म के एक और गीत के बारे में गीतायन से प्राप्त जानकारी के अनुसार)




ए दिल ए बेकरार
जैसे भी हो गुजार
कौन तेरा गमखार
कहने को है हजार-२
लाख तुझे रोका
खा ही गया धोका
कहती ना थी हर बार-२
मत कर किसी से प्यार
ए दिल ए बेकरार.....
सुख था झूठा सपना
जिसको समझ अपना
सुख को दुख: पर वार
सह ले गम की मार
ए दिल ए बेकरार.....
देख लिया अंजाम
आखिर हुआ नाकाम-२
प्यार बड़ा दुश्‍वार
पा न सका मझधार
ए दिल ए बेकरार.....



www.hindi-movies-songs.com से साभार

Tuesday 18 November, 2008

खेलण द्‍यो गिणगौर भँवर म्हाने पूजण द्‍यो गिणगौर: एक राजस्थानी लोकगीत

दिनेशराय द्विवेदी जी ने कुछ महीनों पहले एक पोस्ट लिखी थी 'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर', इस पोस्ट के साथ ही राजस्थान से बचपन की जुड़ी कई बातें एक एक कर याद आ गई कैसे हम हर साल गणगौर के दिन "रावळे" (महलों में) गणगौर देखने जाते थे और उस दिन राजा साहब- रानी साहिबा को देखकर रोमांचित होते थे।

यहाँ ऑफ द रिकॉर्ड एक बात कहना चाहूंगा कि पूर्वप्रधानमंत्री विश्‍वनाथ प्रताप सिंह हमारे देवगढ़ गाँव के दामाद हैं। यानि श्रीमती सीतादेवीजी हमारे रावळे की बेटी हैं और उस नाते हमारे पूरे गाँव की बुआजी हैं। और उनकी भी बुआजी रानी लक्ष्मी कुमारी चुण्डावत जो राजस्थानी भाषा की सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं वे भी उसी रावळे की बेटी हैं यानि वे भी हमारे गाँव की बुआजी है। लक्ष्मीकुमारी जी 1961 से 1971 तक राजस्थान विधान सभा की सदस्या रही| सन‍ 1972 से 78 तक राज्य सभा की सदस्या रही है। राजस्थान काँग्रेस कमिटी की अध्यक्षा रही। और सबसे बड़ी बात राजस्थानी भाषा में साहित्य के लिये साहित्य अकादमी की पुरस्कार विजेता भी रही। मेरे लिए गौरव की बात यह रही कि कई बार मैने उनके हाथों से पुरस्कार प्राप्‍त किया।

हाँ तो बात चल रही थी गणगौर की, ऑफ द रिकॉर्ड कुछ ज्यादा लम्बा हो गया, पूरी बात करता तो पोस्ट में सिर्फ ऑफ दी रिकॉर्ड ही होता। :) गणगौर राजस्थान का प्रसिद्ध त्यौहार है यह तो आपको दिनेशजी की पोस्ट से पता चल ही गया होगा, पर मेरे लिए दिनेशजी की पोस्ट परेशान करने वाली थी पता है क्यों?

कुछ सालों पहले मेरे पास वीणा ओडियो कैसेट्स कम्पनी की एक कैसेट थी "घूमर" इस एल्बम में राजस्थान कोकिला सीमा मिश्रा ने एक से एक लाजवाब गीत गाये हैं। पर मुझे सबसे ज्यादा पसन्द आया "भँवर म्हाने खेलण दो गिणगौर"। कोई मित्र कैसेट मांगकर ले गया और गई सो गई आज तक वापस नहीं मिली। सागरिका के एल्बम माँ की तरह और उसके साथ घूमर को भी बहुत खोजा, पर नहीं मिली। कई बार राजस्थान में अपने गाँव जाना हुआ पर लाना भूल गये। दिनेश जी ने एक बार फिर से उस गीत को सुनने के लिए अधीर कर दिया। ( दिनेशजी को इस बात के लिए धन्यवाद) आज जाकर मुझे यह गीत मिला है, सो मैं बहुत रोमांचित हूँ। परदेस में अपना कोई खोया सा मिल गया प्रतीत होता है।

यह राजस्थान का लोकगीत है पर इस एल्बम के संगीतकार ने संगीत और गीत में कुछ बदलाव कर इसको बहुत ही सुन्दर और कर्णप्रिय बना दिया है। कन्याएं मनपसंद वर पाने के ले और महिलाएं सदा सुहागन रहने के लिए देवी गणगौर की पूजा करती है और साथ में यह गीत गाती है; पर सीमा मिश्रा के इस गीत में कुछ बदलाव किया गया दीखता है। इस गीत में नायिका अपने भँवरजी ( पति) से अलग अलग गहनों की मांग कर रही है।
आईये अब ज्यादा बातें ना कर आपको गीत ही सुनवा देते हैं। और हाँ ध्यान दीजिये सारंगी कितनी मधुर बजी है।



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खेलण द्‍यो गिणगौर
भँवर म्हाने पूजण दो दिन चार
ओ जी म्हारी सहेल्यां जोवे बाट
भँवर म्हाने खेलण द्‍यो गिणगौर

माथा रे मेमद ल्याव
आलीजा म्हारे माथा रे मेमंद ल्याव
ओ जी म्हारी रखड़ी रतन जड़ाय
आलीजा म्हाने खेलण द्‍यो गिणगौर

मुखड़ा ने बेपड़ ल्याव
भँवर म्हारे मुखड़ा ने बेपड़ ल्याव
ओ जी म्हारी सूंपा रतन जड़ाय
भँवर म्हाने खेलण द‍यो गिणगौर

हिवड़ा ने हार ज ल्याव
आलीजा म्हारे हिवड़ा ने हार ज ल्याव
ओ जी म्हारी हंसली उजळ कराव
आलीजा म्हाने खेलण द्‍यो गिणगौर

बहियां ने चुड़लो ल्याव
भँवर म्हारे बहियां ने चुड़लो ल्याव
ओ जी म्हारे गज़रा सूं मुजरो कराव
भँवर म्हाने खेलण द‍यो गिणगौर

पगल्या ने पायल ल्याय
आलिजा म्हारे पगल्या रे पायल ल्याव
ओ जी म्हारा बिडियां रतन जड़ाव
आलीजा म्हाने खेलण द्‍यो गिणगौर

खेलण द्‍यो गिणगौर
भँवर म्हाने पूजण दो दिन चार
ओ जी म्हारी सहेल्यां जोवे बाट
भँवर म्हाने खेलण द्‍यो गिणगौर
पूजण द्‍यो गिणगौर.. पूजण द्‍यो... खेलण द्‍यो...

Monday 10 November, 2008

गरीबों का हिस्सा गरीबों को दे दो- लताजी का एक और अद्‍भुद गीत

बहुत दिनों बाद आज लता जी और अनिल बिस्‍वास की जुगलबंदी में एक और दुर्लभ गीत, प्रस्तुत है। पता नहीं इतने मधुर गीत छुपे कैसे रह जाते हैं?
फिल्म: लाडली १९४९
संगीतकार: अनिल बिस्‍वास
गीतकार: सफ़दर'आह' या प्रेम धवन संशय है। गीत की शैली को देखते हुए प्रेम धवन ही सही लगते हैं।



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गरीबों का हिस्सा गरीबों को दे दो
गरीबों को दे दो - २
गरीबों का...
अमीरोंऽऽऽऽऽऽऽ
अमीरों हमें सूखी रोटी ही दे दो -२
गरीबों का हिस्सा...

जो पहले थी वही है हालत हमारी
थे पहले भी भूखे, है अब भी भिखारी
हमें सांसे है हाथ फैले हुए दो
गरीबों का हिस्सा...

ये ऊंची इमारत, ये रेशम के कपड़े
ना कुटिया ही हमको, ना खादी के टुकड़े
हमें भी तो अपना बदन ढ़ांकने दो-२
गरीबों का हिस्सा...

अगर रूखी सूखी ये खाकर बचेंगे
तो कल को ये गांधी जवाहिर बनेंगे
इन्हें सिर्फ जीने का मौका ही दे दो
गरीबों का हिस्सा...


http://hindi-films-songs.com से साभार

Friday 31 October, 2008

मम्मा, मेरी माँ प्यारी माँ, मम्मा

क्या सचमुच अच्छे गीत बनने बंद हो गये हैं?

राधिका बुधकर जी ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट कहाँ खो गया संगीत? में पहले किसी पोस्ट में पूछे गये एक प्रश्न के जवाब में लिखा था


अब जवाब यह हैं कि मुझे सिर्फ़ इतना ही नही लगता कि शास्त्रीय रागों पर आधारित गाने बनना बंद हो गए हैं ,बल्कि मुझे लगता हैं गीत बनना ही बंद हो गए हैं । संगीत किसे कहेंगे हम ,वह जो जिसमें मधुर स्वर ,उपयुक्त लय ,सुंदर बोल हो और उसे जिसे उसी सुन्दरता से गाया गया हो

माँ, मेरी माँ
प्यारी माँ..मम्मा
ओ माँ
हाथों की लकीरे बदल जायेंगी
गम की ये जंजीरे पिघल जायेंगी
हो खुदा पे भी असर
तू दुवाओं का है घर
मेरी माँ..मम्मा
बिगड़ी किस्मत भी संवर जायेगी
जिन्दगी तराने खुशी के गायेगी
तेरे होते किसका डर
तू दुवाओं का है घर
मेरी माँ , प्यारी माँ.. मम्मा
यूं तो मैं सबसे न्यारा हूँ
तेरा माँ मैं दुलारा हूँ
यूं तो मैं सबसे न्यारा हूँ
पर तेरा माँ मैं दुलारा हूँ
दुनियाँ में जीने से ज्यादा
उलझन है माँ
तू है अमर का जहाँ
तू गुस्सा करती है
बड़ा अच्छा लगता है
तू कान पकड़ती है
बड़ी जोर से लगता है, मेरी माँ
मेरी माँ..प्यारी माँ
मम्मा, ओ माँ.. प्यारी माँ .. मम्मा
हाथों की लकीरे बदल जायेंगी
गम की ये जंजीरे पिघल जायेंगी
हो खुदा पे भी असर
तू दुवाऒं का है घर
मेरी माँ..मम्मा

मैने इसी पोस्ट पर अपनी टिप्पणी की थी कि ऐसा नहीं है कि अच्छे गीत नहीं बनते, कई बार अच्छे गीत आते हैं जो भले ही शास्त्रीय संगीत पर आधारित ना होतें हो पर कर्णप्रिय तो होते ही हैं।

ऐसा ही एक गीत मैं आपको सुनाना चाहता हूँ, जो शायद अभी तक रिलीज भी नहीं हुई है, फिल्म दसविदानिया का है, फिल्म के संगीतकार और गायक कैलाश खैर है। यह एक गीत सुनिये... माँ, मेरी माँ.. मम्मा।

इस गीत को आप आंखे बंद कर ध्यान से और शास्त्रीय संगीत के पैमाने में फिट किये बिना सुनें। सुनिये और बताइये क्या वाकई अच्छे गीत बनना बंद हो गये हैं? क्या इस गीत की लय उपयुक्त नहीं है? क्या बोल सुंदर नहीं है? मैं आपको इस गीत को यहाँ सुनवाने की बजाय एक दूसरे लिंक कर क्लिक करवा रहा हूँ।

मेरी माँ....मम्मा

इस लिंक पर क्लिक कर गाना सुनिये और साथ में गुनगुनाने ले लिये यहाँ आईये..

Thursday 23 October, 2008

कजरारी मतवारी मदभरी दो अखियां- राजकुमारी की आवाज में

कुछ दिनों पहले मैने एक पोस्ट में जिक्र किया था खान मस्ताना का।  जो एक बहुत ही उम्दा  गायक और संगीतकार होते हुए भी अपने  अंतिम दिन   भीख मांगते हुए गुजारे। ऐसी ही एक और गायिका थी राजकुमारी। राजकुमारी जी  के भी अपने जीवन के अंतिम दिन बहुत ही बुरे गुजरे।
राजकुमारी  उन कलाकारों में से एक थी जिन पर किसी दूसरी गायिका  की आवाज का प्रभाव दिखाई- सुनाई नहीं पड़ता। उनकी अपनी एक सुन्दर शैली थी। जिस शैली में राजकुमारी जीने बहुत ही सुन्दर गीत गाये।
महल फिल्म के  गीतों ने लताजी  को तो प्रसिद्धी के शिखर पर बिठा दिया पर राजकुमारी जी को वो  मुकाम कभी हासिल नहीं हुआ।  महल फिल्म में राजकुमारी ने जो गीत गाये उनमें  से खास हैं , एक तीर चला और  घबरा के जो हम सर को   टकरायें तो  अच्छा हो.., चुन चुन घुंघरवा  (जौहरा बाई के  साथ)
परन्तु आज मैं आपको एक दूसरी फिल्म का गीत सुनवाने जा रहा हूँ यह फिल्म है "नव बहार" यह फिल्म 1952  में इस फिल्म का संगीत दिया है स्व. रोशन ने।
ग्रेटा मेमसाब ने अपने ब्लॉग में इस फिल्म की पूरी सचित्र जानकारी दी है । फिल्म का ज्यादा वर्णन मैने यहां  नहीं किया है सो आप   इस लिंक पर जाकर फिल्म की कहानी पढ़ सकते हैं और चित्र भी देख सकते हैं।
मेमसाब Nau Bahar (1952)
आईये गाना सुनते और गुनगुनाते हैं।


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कजरारी  मतवारी मदभरी दो अखियां
पिया तोरी दो अंखिया
कजरारी  मतवारी मदभरी दो अखियां
पिया तोरी इन अखिंयन में 
बैठ मैने के देखी सब दुनियाँ
पिया तोरी दो अखियां
कजरारी...पिया तोरी दो अखियां
जैसे नीलकमल की कलियाँ
जैसे भँवर मतवाले
प्रीत की अन्जानी नगरी से
दो अन्जाने तारे
रंगरस की गलियाँ
पिया तोरी मतवारी  मतवारी मदभरी
कजरारी

आलाप  (कुलदीप कौर)
चपल नैन चप लागिन चमके
चंद्रपोर सी लच लच चच
अधर धरत पग धरन धरत यूं नाचत है ब्रज नारी
ततत थितता थितता थई -३
तेरी अखियंन में चंचल सागर
डूब के तर गया जियरा -२
तोरे नैनन के नीलगगन में
खो गया मेरा हियरा -२
मैं खोजूं  दिन रतियां
पिया तोरी
मतवारी मदभरी दो अखियां
कजरारी  मतवारी मदभरी दो अखियां
पिया तोरी इन अखियंन में बैठ के
देखी मैने सब दुनियाँ
पिया तोरी.....कजरारी..
मदभरी दो अखियां
पिया  तोरी कजरारी मतवारी
मदभरी दो अखियां-२

राजकुमारी के कुछ और गीत यहां सुनिये

Saturday 18 October, 2008

जो हैं तकदीरवाले वही कुर्बान होते हैं.. लताजी की एक गज़ल

कोठे पर गाये जाने वाले गीत हमने पहले भी सुने हैं। लीजिये आज एक मधुर गीत सुनिये फिल्म जीवन मृत्यु से। गाया है लताजी ने , लिखा है आनन्द बक्षी ने और संगीतकार हैं लक्ष्मीकांत प्यारे लाल।



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ज़माने में अजी ऐसे कई नादान होते हैं
वहाँ ले जाते हैं कश्ती जहाँ तूफ़ान होते हैं
शमा की बज़्म में आ कर के परवाने समझते हैं
यहीं पर उम्र गुज़रेगी यह दीवाने समझते हैं
मगर इक रात के
हाँ हाँ.. मगर एक रात के ये तो फ़क़त मेहमान होते हैं
ज़माने में

मोहब्बत सबकी महफ़िल में शमा बन कर नहीं जलती
हसीनों की नज़र सब पे छुरी बन कर नहीं चलती
जो हैं तक़दीर वाले बस वही क़ुर्बान होते हैं
ज़माने में

डुबो कर दूर साहिल से नज़ारा देखनेवाले
लगा कर आग चुप के से तमाशा देखनेवाले
तमाशा आप बनते हैं तो क्यों हैरान होते हैं
ज़माने में



Friday 3 October, 2008

यह लता मंगेशकर की नहीं, एक बेटी की आवाज़ है…

सुरेश चिपलूनकरजी की कलम से
लता मंगेशकर का जन्मदिन हाल ही में मनाया गया। लता मंगेशकर जैसी दिव्य शक्ति के बारे में कुछ लिखने के लिये बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। उन पर और उनके बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब शब्दकोष भी फ़ीके पड़ जाते हैं और उपमायें खुद बौनी लगती हैं। व्यस्तता की वजह से उस पावन अवसर पर कई प्रियजनों के आग्रह के बावजूद कुछ नहीं लिख पाया, लेकिन देवी की आराधना के लिये अष्टमी का दिन ही क्यों, लता पर कभी भी, कुछ भी लिखा जा सकता है। साथ ही लता मंगेशकर के गीतों में से कुछ अच्छे गीत छाँटना ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी छोटे बच्चे को खिलौने की दुकान में से एक-दो खिलौने चुनने को कहा जाये।

साथ ही लता मंगेशकर के गीतों में से कुछ अच्छे गीत छाँटना ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी छोटे बच्चे को खिलौने की दुकान में से एक-दो खिलौने चुनने को कहा जाये।
फ़िर भी कई-कई-कई पसन्दीदा गीतों में से एक गीत के बारे में यहाँ कुछ कहने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। गीत है फ़िल्म "आशीर्वाद" का, लिखा है गुलज़ार जी ने तथा धुन बनाई है वसन्त देसाई ने। गीत के बोल हैं "एक था बचपन…एक था बचपन…", यह गीत राग गुजरी तोड़ी पर आधारित है और इसे सुमिता सान्याल पर फ़िल्माया गया है। पहले आप गीत सुनिये, उसकी आत्मा और गुलज़ार के बोलों को महसूस कीजिये फ़िर आगे की बात करते हैं…



यू-ट्यूब पर यह गीत इस लिंक पर उपलब्ध है…

इस गीत को ध्यान से सुनिये, वैसे तो लता ने सभी गीत उनकी रूह के भीतर उतर कर गाये हैं, लेकिन इस गीत को सुनते वक्त साफ़ महसूस होता है कि यह गीत लता मंगेशकर उनके बचपन की यादों में बसे पिता यानी कि दीनानाथ मंगेशकर को लक्षित करके गा रही हों… उल्लेखनीय है कि दीनानाथ मंगेशकर की पुत्री के रूप में उन्हें वैसे ही ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। दीनानाथ मंगेशकर 1930 में मराठी रंगमंच के बेताज बादशाह थे। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उस वक्त के सोलह हजार रुपये महीने आज क्या कीमत रखते होंगे? जी हाँ उस वक्त दीनानाथ जी की मासिक आय 16000 रुपये थी, भेंट-उपहार-पुरस्कार वगैरह अलग से। उनका कहना था कि यदि ऊपरवाले की मेहरबानी ऐसे ही जारी रही तो एक दिन मैं पूरा गोआ खरीद लूँगा। उच्च कोटि के गायक कलाकार दीनानाथ मंगेशकर और उनकी भव्य नाटक कम्पनी ने समूचे महाराष्ट्र में धूम मचा रखी थी। वक्त ने पलटा खाया, दीनानाथ जी नाटक छोड़कर फ़िल्म बनाने के लिये कूद पड़े और उसमें उन्होंने जो घाटे पर घाटा सहन किया वह उन्हें भीतर तक तोड़ देने वाला साबित हुआ। मात्र 42 वर्ष की आयु में सन् 1942 में उच्च रक्तदाब की वजह से उनका निधन हो गया। उस वक्त लता सिर्फ़ 13 वर्ष की थीं और उन्हें रेडियो पर गाने के अवसर मिलने लगे थे, उन पर पूरे परिवार (माँ, तीन बहनें और एक भाई) की जिम्मेदारी आन पड़ी थी, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और देवप्रदत्त प्रतिभा के साथ उन्होंने पुनः शून्य से संघर्ष शुरु किया और "भारत रत्न" के उच्च स्तर तक पहुँचीं।



मृत्युशैया पर पड़े दीनानाथ जी ने रेडियो पर लता की आवाज़ सुनकर कहा था कि "अब मैं चैन से अन्तिम साँस ले सकता हूँ…" लता के सिर पर हाथ फ़ेरते हुए उन्होंने कहा था कि "मैंने अपने जीवन में बहुत धन कमाया और गंवाया भी, लेकिन मैं तुम लोगों के लिये कुछ भी छोड़कर नहीं जा रहा, सिवाय मेरी धुनों, एक तानपूरे और ढेरों आशीर्वाद के अलावा…तुम एक दिन बहुत नाम कमाओगी…"। लता मंगेशकर ने उनके सपनों को पूरा किया और आजीवन अविवाहित रहते हुए परिवार की जिम्मेदारी उठाई। यह गीत सुनते वक्त एक पुत्री का अपने पिता पर प्रेम झलकता है, साथ ही उस महान पिता की जुदाई की टीस भी शिद्दत से उभरती है, जो सुनने वाले के हृदय को भेदकर रख देती है… यह एक जेनेटिक तथ्य है कि बेटियाँ पिता को अधिक प्यारी होती हैं, जबकि बेटे माँ के दुलारे होते हैं। गीत के तीसरे अन्तरे में जब लता पुकारती हैं "मेरे होंठों पर उनकी आवाज़ भी है…" तो लगता है कि वाकई दीनानाथ जी का दिया हुआ आशीर्वाद हम जैसे अकिंचन लोगों को भीतर तक तृप्त करने के लिये ही था।

फ़िल्म इंडस्ट्री ने कई कलाकारों को कम उम्र में दुनिया छोड़ते देखा है, जिनकी कमी आज भी खलती है जैसे गुरुदत्त, संजीव कुमार, स्मिता पाटिल आदि… मास्टर दीनानाथ भी ऐसी ही एक दिव्य आत्मा थे, एक तरह से यह गीत पूरी तरह से उन्हीं को समर्पित है… गुलज़ार – जो कि "इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज कदम राहें…" या फ़िर "हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबू…" जैसे अजब-गजब बोल लिखते हैं उन्होंने भी इस गीत में सीधे-सादे शब्दों का उपयोग किया है, गीत की जान है वसन्त देसाई की धुन, लेकिन समूचे गीत पर लता-दीनानाथ की छाया प्रतिध्वनित होती है। यह भी एक संयोग है कि फ़िल्म में सुमिता सान्याल को यह गीत गायिका के रूप में रेडियो पर गाते दिखाया गया है।

आज लता मंगेशकर हीरों की अंगूठियाँ और हार पहनती हैं, लन्दन और न्यूयॉर्क में छुट्टियाँ बिताती हैं, पुणे में दीनानाथ मंगेशकर के नाम से विशाल अस्पताल है, और मुम्बई में एक सर्वसुविधायुक्त ऑडिटोरियम, हालांकि इससे दस गुना वैभव तो उन्हें बचपन में ही सुलभ था, और यदि दीनानाथ जी का अल्पायु में निधन न हुआ होता तो??? लेकिन वक्त के आगे किसी की कब चली है, मात्र 13 वर्ष की खेलने-कूदने की कमसिन आयु में लता मंगेशकर पर जो वज्रपात हुआ होगा, फ़िर जो भीषण संघर्ष उन्होंने किया होगा उसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते स्वयं अविवाहित रहना भी तो त्याग की एक पराकाष्ठा है… इस गीत में लता का खोया हुआ बचपन और पिता से बिछुड़ने का दर्द साफ़ झलकता है। दुनिया में फ़ैले दुःख-दर्द, अन्याय, शोषण, अत्याचार को देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि "ईश्वर" नाम की कोई सत्ता नहीं होती, परन्तु लता मंगेशकर की आवाज़ सुनकर फ़िर महसूस होता है कि नहीं… नहीं… ईश्वर ने अपने कुछ अंश धरती पर बिखेरे हुए हैं, जिनमें से एक है लता मंगेशकर…

गीत के बोल इस प्रकार हैं…

एक तथा बचपन, एक था बचपन
बचपन के एक बाबूजी थे, अच्छे-सच्चे बाबूजी थे
दोनों का सुन्दर था बन्धन…
एक था बचपन…

1) टहनी पर चढ़के जब फ़ूल बुलाते थे
हाथ उचके तो टहनी तक ना जाते थे
बचपन के नन्हें दो हाथ उठाकर वो
फ़ूलों से हाथ मिलाते थे…
एक था बचपन… एक था बचपन

2) चलते-चलते, चलते-चलते जाने कब इन राहों में
बाबूजी बस गये बचपन की बाहों में
मुठ्ठी में बन्द हैं वो सूखे फ़ूल अभी
खुशबू है सीने की चाहों में…
एक था बचपन… एक था बचपन

3) होठों पर उनकी आवाज भी है
मेरे होंठों पर उनकी आवाज भी है
साँसों में सौंपा विश्वास भी है
जाने किस मोड़ पे कब मिल जायेंगे वो
पूछेंगे बचपन का अहसास भी है…
एक था बचपन, एक था बचपन…
छोटा सा नन्हा सा बचपन…

एक और बात गौर करने वाली है कि अब "बाबूजी" शब्द भी लगभग गुम चुका है। वक्त के साथ "बाबूजी" से पिताजी हुए, पिताजी से पापा हुए, पापा से "डैड" हो गये और अब तो बाबूजी को सरेआम धमकाया जाता है कि "बाबूजी जरा धीरे चलो, बिजली खड़ी, यहाँ बिजली खड़ी, नैनों में चिंगारियाँ, गोरा बदन शोलों की लड़ी…" बस और क्या कहूँ, मैंने पहले ही कहा कि "वक्त के आगे सभी बेबस हैं…"।

Tuesday 23 September, 2008

माँ : खोज एक गीत की

शायद सन 1991-92 की बात होगी, जब नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और एन डी ए सरकार के इण्डिया शाइनिंग की तरह उन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन बहुत चला करता था, जिसमें बताया जाता था कि किस तरह नरसिम्हा राव ने भारत की तस्वीर बदल दी।
विज्ञापन में एक महिला खुशखुशाल भाग कर घर में आती है और अपनी संदूक में कपड़ों के नीचे से एक तस्वीर निकालकर अपनी साड़ी से पोंछती है, यह तस्वीर नरसिम्हाराव जी की होती है। पार्श्व में एक गीत भी चलता रहता है।
इस विज्ञापन के साथ उन दिनों एक गाना भी टीवी पर बहुत दिखता था। यह गाना सागरिका (मुखर्जी) के एक अल्बम का था और जिसमें सागरिका अपनी माँ के लिये कहती है...प्रेम की मूरत दया की सुरत, ऐसी और कहां है, जैसी मेरी माँ है

मुझे पॉप बिल्कुल नहीं भाते पर यह गीत एक पॉप गायिका ने गाया था और पता नहीं क्यों यह गाना मुझे बहुत पसंद था। धीरे धीरे इस गीत को सब भूलते गये, (शायद सागरिका भी) पर मैं इस गाने को बहुत खोजता रहा पर मुझे नहीं मिला। क्यों कि एल्बम का नाम पता नहीं था और सागरिका कोई बहुत बड़ी स्टार गायिका भी नहीं थी कि गीत की कुछ लाईनों से गीत खोज लिया जाता।
हैदराबाद में साईबर कॉफे चलाते हुए नेट पर भी बहुत खोजा पर यह गीत नहीं मिला, यूनुस भाई से अनुरोध किया तो उन्होने कहा, गीत छोड़िये हम सागरिका का एक इन्टर्व्यू ही कर लेते हैं। पर शायद सागरिका अपने परिवार के साथ विदेश में रहती है इस वजह से अब तक वह भी नहीं हो पाया।
कुछ दिनों पहले मैने एक सीडी की दुकान वाले को ५०/- एडवान्स दिये और उसे कहा तो उसने भी चार दिन पास पैसे वापस लौटा दिये और कहा कि भाई मुझे सीडी नहीं मिली।
मेरे एक मित्र कम ग्राहक अनुज से यह बात की तो उन्होने मुझे चैलेन्ज दिया कि वह इस गीत को दो दिन में खोज लेंगे और वाकई उन्होने खोज भी दिया। धन्यवाद अनुज भाई।
लीजिये आप भी इस गीत को सुनिये । और हाँ इस गीत को लिखा है निदा फ़ाज़ली ने। इस गीत को सागरिका ने जैसे सच्चे दिल से गाया है, अपनी माँ को याद करते हुए। तभी यह गीत इतना मधुर बन पाया है। गीत सुनते हुए मुझे मेरी माँ याद आती है। आपको आती है कि नहीं? बताईयेगा।

धूप में छाय़ा जैसी
प्यास में नदिया जैसी
तन में जीवन जैसे
मन मैं दर्पन जैसे
हाथ दुवा वाले
रोशन करे उजाले
फूल पे जैसे शबनम
साँस में जैसे सरगम
प्रेम की मूरत दया की सुरत
ऐसी और कहां है
जैसी मेरी माँ है

जहान में रात छाये
वो दीपक बन जाये
जब कभी रात जगाये
वो सपना बन जाये
अंदर नीर बहाये
बाहर से मुस्काये
काया वो पावन सी
मथुरा वृंदावन जैसी
जिसके दर्शन मैं हो भगवन
ऐसी और कहां है
जैसी मेरी माँ है
( इस प्लेयर को लगाने का सुझाव श्री अफलातूनजी ने दिया। वर्डप्रेस.कॉम पर गाने चढ़ाना बहुत मुश्किल काम है। यह जुगाड़ अच्छा है पर इसकी प्रक्रिया बहुत ही लम्बी है, फिर भी एक शुरुआत तो हुई, धन्यवाद अफलातूनजी।)

Sunday 21 September, 2008

मल्लिका-ए- तरन्नुम नूरजहाँ के जन्मदिन पर विशेष

एक जुगलबंदी और एक दुर्लभ गीत

आज मल्लिका ए तरन्नुम नूरजहां का जन्म दिन है। अपने जीवन के २१वें साल में नूरजहाँ ने भारत और हिन्दी फिल्में छोड़ दी और बँटवारे की वजह से पाकिस्तान चली गई। पाकिस्तान में भी उन्होने कई फिल्मों में काम किया, बहुत गाया पर मेरे मन में एक टीस है कि काश नूरजहां भारत में होती तो हमारे पास दो दो अनमोल रत्न होते। लता जी और नूरजहाँ।
लता मंगेशकर भी नूरजहाँ को अपना गुरु मानती हैं। आईये नूरजहाँ के स्वर में दो बढ़िया गीत सुनते हैं। पहला एक शास्त्रीय आलाप है। नूरजहाँ ने इस में सलामत अली खाँ साहब के साथ जुगलबंदी की है। यह कौनसा राग है हमें नहीं पता, शायद पारुलजी या मानोशीजी कुछ मदद कर सकें।


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और इस दूसरे गीत को नूरजहाँ ने अपनी बुलंद आवाज में गाया है। यह फिल्म बड़ी माँ से है। यह गीत ज़िया सरहदी ने लिखा और संगीतबद्ध किया दत्ता कोरेगाँवकर (के. दत्ता) ने।



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आ इंतज़ार है तेरा, दिल बेक़रार है मेरा
आजा न सता और, आजा न रुला
और आजा कि तू ही है मेरी उम्मीद का तारा
उम्मीद का तारा संगम
मेरी ख़ुशियों का निगाहों का सहारा
आ इंतज़ार है तेरा, दिल बेक़रार है

मेरा आकर मेरी जागी हुई रातों को सुला दे
खो जाऊँ, खो जाऊँ मुझे ऐसा कोई गीत सुना दे
आ इंतज़ार है तेरा, दिल बेक़रार है मेरा

अब और सितम, अब और सितम हम से उठाए नहीं जाते
और राज़ मोहब्बत के, और राज़ मोहब्बत के छुपाए नहीं जाते
छुपाये नहीं जाते
आ इंतज़ार है तेरा, दिल बेक़रार है मेरा

अभी पता नहीं कितने ऐसे संगीतकार हैं जिन्होने इतने बढ़िया गीत रचे और हमें उनके नाम तक नहीं पता। भविष्य में ऐसे ही और संगीतकारों के गीत महफिल में सुनाये जायेंगे।

Sunday 14 September, 2008

“तेरे भीगे बदन की खूशबू से ” मेहंदी हसन द्वारा गाया एक फ़िल्मी गीत

इसमे कोई शक नही कि जनाब मेहंदी हसन के चाहने  वाले न सिर्फ़ पाकिस्तान के आवाम मे बल्कि अपने देश मे भी लाखॊ की तादाद मे हैं । लेकिन हमसे अधिकतर मेहंदी हसन जी को  गजल और गैर फ़िल्मी गानों के रुप जानते रहे हैं । लेकिन उनकी दूसरी शख्सियत पाकिस्तान के उर्दू सिनेमा के साथ भी जुडी  है । पाकिस्तानी अदाकार नदीम और शबनम पर फ़िल्माया गया यह रोंमानटिक गाना  “शराफ़त” से लिया गया है । यह फ़िल्म १९७० के आसपास पाकिस्तान मे रिलीज हुयी थी । पेश है मेहंदी हसन जी की दिलकश आवाज :

तेरे भीगे बदन की खूशबू से 
लहरें भी हुयी मस्तानी सी
तेरी जुल्फ़ को छू कर आज हुई
खामोश हवा दीवानी सी
यह रुप का कुन्दन दहका हुआ
यह जिस्म का चंदन महका हुआ
इलजाम न देना फ़िर मुझको
हो जाये अगर नादानी सी
बिखरा हुआ काजल आंखॊ मे
तूफ़ान की हलचल सांसो मे
यह नर्म लबों की खामोशी
पलकों मे छुपी हैरानी सी
तेरे भीगे बदन की खूशूबू से
लहरे भी हुयी मस्तानी सी
तेरी जुल्फ़ को छू कर आज हुई
खामोश हवा दीवानी सी ।

Saturday 13 September, 2008

सेक्सोफोन और बांसुरी पर राग मालकौंस: जुगलबन्दी

रोज आपको महफिल में फिल्मी गीत और गज़ले सुनाते रहे, कल संजय भाई ने एक तराना ऐसा सुना दिया की पूरे दिन तन मन पर वही छाया रहा। पता नहीं कितनी बार उसे सुना। फिर याद आया एक तराना ये तराना जो कर्नाटक शैली की सुप्रसिद्ध जोड़ी कादरी गोपालनाथ और प्रवीण गोदखिन्दी Kadri Gopalnath & Pravin Godkhindi ( उच्चारण में गलती हो तो क्षमा करें)
इस तराने के लिये दोनो कलाकारों ने सेक्सोफोन और बांसुरी पर जुगलबंदी की है। यह तराना सुनने के लिये आपको १४ मिनिट खर्च करने होंगे, क्यों कि बीच में द्रुत लय में सुन्दर आलाप भी है; हो सकता है कि १४ मिनिट आपके लिये बहुत ज्यादा हो परन्तु मुझे विश्वास है कि इस जुगलबंदी को सुनने के बाद आपको जो आनन्द मिलेगा वह बहुत बढ़िया होगा, आपको यह नहीं लगेगा कि टाइम खोटी किया।
हाँ पूरा आनन्द लेने के लिये पूरी जुगलबंदी सुननी होगी। देखते हैं आपको पसन्द आई तो खजाने में से कुछ और बन्दिशे निकालते हैं।
लीजिये सुनिये

चलते चलते

लखनऊ के डॉ प्रभात टण्डन भी अब महफिल के सदस्य हैं कल ही उनहोने जगजीत सिंह के गाये हुए और निदा फ़ाजली के लिखे दोहे पोस्ट किये है, आपने सुने कि नहीं? डॉ साहब का स्वागत है।

साथ ही नीरज भाई ने आशाजी के गाये हुए और मदनमोहन जी के संगीतबद्ध तीन सुन्दर गीत भी पोस्ट किये हैं, उन्हें भी जरूर सुनिये

आशा भोंसले की आवाज में मदन मोहन के तीन अमर गीत !!!

जब जब मदन मोहन के संगीत का जिक्र होता है साथ में हमेशा लता मंगेशकरजी की बात होती है । ठीक उसी तरह ओ. पी. नैय्यर साहब के संगीत के साथ आशा भोसले का नाम अपने आप जुबां पर आ जाता है । लेकिन ये भी सत्य है कि आशा भोंसले ने भी मदन मोहन और गीता दत्त ने ओ. पी. नैय्यर के साथ अनेकों अनमोल नग्में गाये हैं ।

मदन मोहन जी के २० साल के संगीत के सफ़र में उनके साथ आशा भोंसले ने १९० और लता मंगेशकर ने २१० फ़िल्मी गीत गाये । कुछ दिन पहले आशा भोसले का जन्मदिन था लेकिन अपनी व्यस्तता के चलते मैं कुछ पोस्ट नहीं कर पाया । आशाजी और मदन मोहन के अनमोल नग्मों में से मेरे कुछ पसंदीदा गीत हैं ।

१) सबा से ये कह दो कि कलिया बिछायें (बैंक मैनेजर)
२) जमीं से हमें आसमा पर (अदालत)
३) अश्कों से तेरी हमने तस्वीर बनाई है (देख कबीरा रोया)
४) जाने क्या हाल हो कल शीशे का पैमाने का (मां का आंचल)
५) हमसफ़र साथ अपना छोड चले
६) कोई शिकवा भी नहीं, कोई शिकायत भी नहीं (नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे)

फ़िल्म "नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे" में तो मदनजी के सारे गीत आशाजी ने गाये और इस फ़िल्म का एक एक गीत अनमोल है । पहला नग्मा असल में एक गजल है, जाने क्या हाल हो कल शीशे का पैमाने का । इस गीत को सुनें और बस डूब के रह जायें ।



दूसरा गीत है, "सबा से ये कह दो कि कलियाँ बिछायें"



और तीसरा अनमोल नग्मा है, "कोई शिकवा भी नहीं"



आईक की हवायें बढती जा रही हैं और थोडी देर में शायद बिजली गुल हो जाये, इससे पहले इस पोस्ट को छाप देते हैं ।

Friday 12 September, 2008

"मै रोया परदेस मे भीगा माँ का प्यार ।" - जगजीत सिंह जी के गाये हुये कुछ खूबसूरत दोहे !

आसपास घटने वाली कुछ घटनायें मन मे अमित प्रभाव छॊड देती हैं । बात है तो बहुत साधारण सी लेकिन एक नन्हें से बालक का प्रशन और उसके पिता का उत्तर शायद बहुतों के लिये सोचने का सबब बन सके । कल दोपहर क्लीनिक मे जब जोहर की अजान का स्वर पास वाली मस्जिद से उभरा तो मेरे सामने बैठे एक नन्हें से बालक ने अपने पिता से पूछा कि यह क्या कह रहे हैं । उसके पिता ने उसको अपनी गोदी मे बैठाते और समझाते हुये कहा कि जैसे हम घर मे पूजा करने के लिये सबको बुलाते हैं वैसे ही यह भी पूजा करने के लिये ही बुला रहे हैं । एक छोटी सी बात मे उस बालक की जिज्ञासा पर विराम सा लग गया । गाड , अल्लाह , ईशवर , भगवान नाम अनेक लेकिन मकसद सिर्फ़ एक । सत्य की खोज । उपासना के ढंग और रास्ते अलग –२ हो सकते हैं , लोगों के मन मे उनकी छवियाँ अलग-२ हो सकती हैं लेकिन सत्य सिर्फ़ एक ।

जगजीत सिंह की गायी और निदा फ़ाजली द्वारा लिखी गयी यह नज्म (दोहे) मुझे बहुत पसन्द है।

मै रोया परदेस मे भीगा माँ का प्यार ।
दु:ख मे दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार ॥
छोटा कर के देखिये जीवन का विस्तार ।
आँखो भर आकाश है बाँहों भर संसार ॥
ले के तन के नाप को घूमें बस्ती गाँव ।
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव ॥
सब की पूजा एक सी अलग- 2 हर रीति ।
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत ॥
पूज़ा घर मे मूर्ति मीरा के संग शयाम ।
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम ॥
नदिया सींचें खेत को तोता कुतरे आम ।
सूरज ढेकेदार सा सबको बाँटे काम ॥
साँतों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर ।
जिस दिन सोये देर तक भूखा रहे फ़कीर ॥
अच्छी संगत बैठ कर संगी बदले रूप ।
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गयी धूप ॥
सपना झरना नींद का जाकी आँखीं प्यास ।
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास ॥
चाहिये गीता बाँचिये या पढिये कुरान ।
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान ॥

पंछी बावरा... नय्यरा आपा की आवाज में एक मधुर गीत

खुर्शीद की आवाज में आपने भक्त सूरदास फिल्म का यह गीत अनेको बार सुना होगा। इस गीत को पंडित ज्ञानदत्त जी ने राग केदार में ढ़ाला था, और लिखा था डी एन मधोक ने। भक्त सूरदास के बरसों बाद नय्यरा नूर ने एक प्राइवेट एल्बम के लिये इस गीत को गाया था।

नय्यरा आपा का जन्म असम में हुआ था और बाद में वे पाकिस्तान में रहीं। लीजिये इस सुन्दर गीत को नय्यरा आपा की आवाज में सुनिये











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पंछी बावरा
चांद से प्रीत लगाये

छाया देखी नदी में मूरख
फूला नहीं समाया
वो हरजाई तारों के संग
अपनी रात रचाये
पंछी बावरा

कौन बताये तुझे चकोरा
गोरे मन के काले
ज्यूं ज्यूं प्रीत बढ़ायेगा तू
त्यूं त्यूं ये घट जाये
चांद से प्रीत लगाये
पंछी बावरा

नय्यरा आपा हिन्दी ब्लॉग जगत में

कभी हम खूबसूरत थे विमलजी की ठुमरी

जिसके बिना काम नहीं चलता.. प्रमोदजी का अज़दक



Tuesday 2 September, 2008

एक नया अनमोल जीवन मिल गया: तलत महमूद

तलत महमूद का गाया हुआ एक दुर्लभ और मधुर गैर फिल्मी गीत

मखमली आवाज के मालिक तलत महमूद साहब के लिये कुछ कहने की जरूरत है? मुझे लगता है शायद उनकी लिये यहाँ कुछ शब्दों में लिखना बड़ा मुश्किल होगा। फिलहाल आप उनकी मधुर आवाज में एक दुर्लभ गीत सुनिये। यह गैर फिल्मी गीत है और इसका संगीत दिया है दुर्गा सेन ने और इसे लिखा है फ़ैयाज़ हाशमी ने.. लीजिये सुनिये।









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एक नया अनमोल जीवन मिल गया, मिल गया
हार की बांहे गले में पड़ गई
क्या हुआ गर चार आँखे लड़ गई
क्या गया गर दिल के बदले दिल गया
एक नया अनमोल जीवन

प्रेम अब छाया है मन के गाँव में
एक सुनहरा है कमल इस छाँव में
खुल के वो मुझसे मिली ये खिल गया
एक नया अनमोल जीवन

मेरे दिन में रात में आई बहार
वो जो आई साथ में लाई बहार-२
दिल जो गया तो दर्द भी शामिल गया-२
एक नया अनमोल जीवन


Wednesday 27 August, 2008

फिल्म समीक्षा: अनुराधा 1960

ग्रेटा के ब्लॉग पर हिन्दी फिल्मों की समीक्षा पढ़ने के बाद कई दिनों से मन में एक खयाल आ रहा था कि क्यों ना महफिल पर भी किसी फिल्म के बारे में कुछ लिखा जाये। कई दिनों की उधेड़बुन के बाद मुझे वह फिल्म मिल ही गई जिसके बारे में महफिल पर लिखा जा सकता है।यह फिल्म है ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म अनुराधा

अनुराधा मेरी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक है। इस फिल्म में भारत रत्न पडित रविशंकर ने संगीत दिया था। फिल्म के मुख्य कलाकार थे बलराज साहनी, लीला नायडू, अभिभट्टाचार्य, असित सेन, नासिर हुसैन, हरि शिवदासानी और बाल कलाकार रानू। कथा और पटकथा है सचिन भौमिक की। संवाद राजेन्द्र सिंह बेदी ने लिखे हैं और गीतकार है शैलेन्द्र। फिल्म में गीत गाये हैं लता मंगेशकर, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर ने।

इस फिल्म में हरेक कलाकार ने अपना जबरदस्त योगदान दिया है, लीला नायडू- बलराज साहनी का अभिनय, पं रविशंकर का संगीत निर्देशन, ऋषिकेश मुखर्जी का निर्देशन.. और हाँ लीला नायडू का सादगी भरा सौंदर्य भी। लीला नायडू के बोलने का तरीका भी एक अलग तरह का है जो फिल्म में उनके पात्र को ज्यादा प्रभावशाली बना रहा है। बच्ची रानू का हिन्दी बोलने का लहजा बंगाली है वह अनुराधा की बजाय ओनुराधा रॉय बोलती है। छोटी बच्ची ने भी बहुत शानदार अभिनय किया है।

1 Title

फिल्म का निर्देशन और संपादन बहुत ही शानदार है कहां फिल्म फ्लैश बेक में चली जाती है और कहां वर्तमान में आ जाती है पता ही नहीं चलता। इस बारे मे आगे लिखा गया है।

फिल्म के नायक है डॉ निर्मल चौधरी (बलराज साहनी) अपनी पत्नी अनुराधा (लीला नायडू) और प्यारी, चुलबुली और बड़बोली बिटिया रानू के साथ एक छोटे से गाँव में रहते हैं। डॉ निर्मल के जीवन का एक ही उद्धेश्य है गरीब मरीजों के सेवा करना और इस काम में दिन रात डूबे रहते हैं। उनके पास अपनी पत्नी के लिये बिल्कुल भी समय नहीं है। जब मरीजों को देखने जाते हैं तो अपनी बिटिया रानू (रानू) को भी साथ ले जाते हैं और घर में रह जाती है अकेली अनुराधा।

गाँव में मरीजो को देखकर मुफ्त में दवा देते हुए डॉ निर्मल, मरीज कह रहा है डॉ साहब आप देवता है.. और रानू पूछती है क्यों चाचा फीस नहीं दोगे? निर्मल बच्ची को डपट देते हैं।

2

शरारती बच्चे डॉ निर्मल की सुई ( इंजेक्शन) से बचने के लिये डॉ की साइकिल के पहिये को सुई लगा देते हैं, और बेचारे डॉ बच्ची को गोद में उठाये पैदल घर पहुंचते हैं यहाँ अनु अकेली दोनों के इंतजार में बैचेन हो रही है। अपना समय काटने के लिये अनु घर में कभी इधर, कभी उधर घूमती रहती है। किताबें पढ़ती रहती है पर कब तक?

अकेली, किताबें पढ़कर अपना समय काटती अनुराधा।
3

पति आते ही गाँव की मरीजों की , मरीजों के सुख दुख: की बातें करने लगते हैं तो अनु पूछ बैठती है सबकी बीमारी देखते हो कभी मेरी बीमारी के बारे में भी सोचा है? डॉ पूछते हैं तुम्हे क्या बीमारी हुई है? तो अनु कहती है मैं दिन भर अकेली बैठी रहती हूँ, बातचीत करूं तो किससे दीवारों से?

4

अनु अनुरोध करती है कि आज पूनम का उत्सव है और गाँव वालों ने न्यौता दिया है आज शाम जल्दी घर आ जाना..इसी बहाने मैं भी तुम्हारे साथ दो घड़ी गुजार लूंगी!

अनु अति उत्साहित वही साड़ी पहनती है जिसके खरीदते समय अनु और डॉ निर्मल पहली बार मिले थे, और डॉ की पसंद पर अनु ने वह साड़ी खरीदी थी। पर निर्मल एक तो समय पर नहीं आ पाते और फिर आते ही अपनी प्रयोगशाला में काम में जुट जाते हैं। अनु पूछती है आप आज मुझे पूनम के उत्सव पर ले जाने वाले थे, निर्मल अनु को समझा देते हैं कि आज नहीं और कभी।

4.5

यहां अनु प्रयोगशाला की खिड़की से गाँव वालों का संगीत सुन रही है तो निर्मल उसे कहते हैं " अनु तुम यह खिड़की बंद कर दो तुम्हारा यह संगीत मुझे डिस्टर्ब करता है।"

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अनु के सर पर जैसे गाज गिरती है, इसी संगीत की वजह से तो अनु और निर्मल मिले थे, इसी संगीत के लिये निर्मल उसे चाहने लगे थे। यहाँ फिल्म फ्लैश बैक में चलती है अनु को वे दिन याद आने लगते हैं जब अनु और डॉ पहली बार मिले थे और....

अनुराधा रॉय एक सुप्रसिद्ध रेडियो कलाकार( गायिका) है और नाचती भी बहुत अच्छा है। संयोग से अनुराधा के भाई आशिम, निर्मल के मित्र भी है। एक संगीत कार्यक्रम में अनुराधा निर्मल की पसंद की हुई साड़ी पहन कर नृत्य पेश करती है। उस कार्यक्रम में निर्मल भी आये हुए हैं। समापन के बाद साड़ी में पाँव उलझ जाने की वजह से अनुराधा गिर जाती है और बेहोश हो जाती है। पाँव में मोच आ जाने और दर्द की की वजह से डॉ का अनु के घर में आना जाना शुरु होता है और उपचार के दौरान धीरे धीरे दोनों के मन में प्रेम के अंकुर फूटने लगते हैं।

अनु का उपचार करते हुए डॉ. निर्मल
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और आखिरकार दोनों प्रेम करने लगते हैं और अनु इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत गाती है "जाने कैसे सपनों में खो गई अखियां मैं तो हूं जागी मेरी सो गई अखियां"

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इस बीच अनु के पिताजी के दोस्त के बेटे दीपक (अभि भट्टाचार्य) विदेश में अपनी पढ़ाई पूरी कर वापस आते हैं। दीपक अनु को चाहते भी हैं। अनु के पिताजी चाहते हैं दोनों का विवाह हो जाये परन्तु अनु दीपक को साफ साफ कह देती है कि वो किसी और को चाहती है, और उसी से विवाह करना चाहती है।

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अनु अपने पिताजीको बता देती है कि वह डॉक्टर से शादी करना चाहती है पर पिताजी नहीं मानते और आखिरकार अनु घर छोड़ देती है और आखिरकार निर्मल और अनुराधा शादी के बंधन में बंध जाते हैं।

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परन्तु अनु के पिताजी अनु और निर्मल के विवाह को अस्वीकार कर देते हैं।
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इस फिल्म का संपादन बहुत ही कमाल का है, शादी की पहली रात निर्मल अपनी सेज सजाने के लिये फूल खरीदने बाजार गये हैं और अनु अपने रिकॉर्ड पर गाना सुन रही है जाने कैसे सपनों में खो गई अखिंया.. और पति का इन्तजार कर रही है, जब दरवाजा खुलता है तो कहानी अचानक ही वर्तमान में आती है।

यहां अनु अपनी बच्ची को वही गीत सुना रही है... बच्ची चिल्लाती है माँ पिताजी आ गये पिताजी आ गये.. निर्मल रिकॉर्ड पर अटकी सुई को देख कर कहते हैं "बन्द करो ना इसे गाना तो खत्म हो गया है", तब अनु कहती है "हाँ गाना तो खत्म हो गया.. अनु के ये शब्द और आँखें इतने ही शब्दों में बहुत कुछ कह जाते है"।

संपादन का इतना सुंदर उपयोग कि दर्शक कहानी में इतने जुड़ जाते हैं कि उन्हें यह पता ही नहीं चलता कि इस दृश्य के पहले कहानी फ्लैश बैक में चल रही थी।

निर्मल एक बार फिर किताबों में उलझ जाते हैं और अनु खाना खाने को कहती है और हाथ से किताब ले लेती है तो निर्मल को गुस्सा आ जाता है।

यह क्या मजाक है, मेरी किताब क्यों छीन ली? देखती नहीं मैं काम कर रहा हूँ, अगर इतनी ही भूख है तो तुम खाना खा लो, मैं बाद में खा लूंगा।

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यहाँ अनु घर का सौदा लेने गई हुई है और बिटिया रानू घर में अकेली है, तभी अनु के पिताजी शहर से आते हैं यहां रानू उनसे बहुत बातें करती है। यहां नाना- दोहिती के संवाद बहुत मजेदार है।


अपने बेटे और बेटी ( खिलौने) से मिलवाती रानू- "यह है चून्नू मेरा बेटा और मुन्नी मेरा बेटी"

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निर्मल से मिलते हुए अनु के पिताजी " मुझे माफ कर दो बेटा"

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यहाँ कहानी में नया मोड़ आता है। दीपक एक मित्र सीमा के साथ सैर पर निकला है। यहाँ दीपक की मित्र उससे उसकी उदासी का कारण बहुत पूछती है और अचानक गाड़ी संभल नहीं पाती और दुर्घटना हो जाती है जिसमें सीमा बहुत ज्यादा घायल हो जाती है और दीपक उससे थोड़ा कम।

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निर्मल सीमा को जमींदार के घर भेज देते हैं यहां और दीपक को अपने घर पर ले आते हैं। दीपक को छोड़ निर्मल, सीमा का ऑपरेशन करने के लिये जमींदार के यहां चले जाते हैं। यहां अनु, घायल दीपक को देखकर चौंक जाती है।

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जब निर्मल घर आते हैं तो यह जान कर आश्चर्य चकित रह जाते हैं कि अनु और दीपक एक दूसरे को जानते हैं।

"क्या तुम एक दूसरे को जानते हो?"
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यहां दीपक अनु को बहुत अनुरोध करता है कि वह एक गाना गाये पर अनु नहीं मानती। बाद में निर्मल के कहने पर अनु गाना गाती है "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ पिया जाने ना"

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दीपक समझ जाता है कि कुछ ना कुछ गड़बड़ है। वह अनु को बहुत डाँटता है कि क्यों तुमने अपनी प्रतिभा का गला घोंटा?

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दीपक समझाता है कि लौट चलो अपने पिताजी के पास। अब भी देर नहीं हुई। अनु नाराज होती है।

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निर्मल पूछते हैं कि दीपक को दवाई क्यों नहीं दी? तो अनु गुस्से में कह देती है मैं तुम्हारी बीबी हूँ कम्पाउंडर नहीं।
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निर्मल एक बार फिर अनु को समझा बुझा देते हैं और उस दिन विवाह की वर्षगांठ होने पर अनु से एक बार फिर जल्दी लौटने का वादा करते हैं और एक बार फिर समय पर लौट नहीं पाते अनु जब पूछती है कि एक दिन भी तुम समय पर घर नहीं आ सकते तो निर्मल कहते हैं-

"तुम समझती हो मैं वहां खेलने जाता हूँ, मैं एक डॉक्टर हूं मेरी कुछ जिम्मेदारियाँ है?
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आखिरकार अनु का दिल टूट जाता है और वह दीपक से कहती है "तुम सच कहते थे मैने अपनी जिंदगी बर्बाद करली, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।"
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यहाँ निर्देशक ऋषिदा की समझदारी देखिये अनु के मुँह से यह बात सुन कर दीपक कहता है कि "अब मेरा इस घर में रहना उचित नहीं होगा, मैं डाक बंगले में ठहर जाता हूँ, शाम को तुम्हे लेने आ जाऊंगा।

इधर गाँव में जमींदार के यहां सीमा के पिताजी और उनके मित्र कर्नल (डॉक्टर ) त्रिवेदी आये हुए हैं। वे सीमा की पट्टियाँ खुलवा कर जब उसे देखते हैं तो चकित रह जाते हैं। क्यों कि निर्मल ने सीमा की प्लास्टिक सर्जरी कर दी थी और गाल पर निशान गायब कर दिया था। कर्नम त्रिवेदी को आश्चर्य इस बात का होता है कि इतने छोटे गाँव में निर्मल ने यह सब किया कैसे?

वे निर्मल पर बनावटी गुस्सा करते हैं तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? ओपरेशन करने की! बाद में कर्नल त्रिवेदी, निर्मल की बहुत तारीफ करते हैं। उन्हें जब पता चलता है कि निर्मल की एक छोटी सी प्रयोगशाला भी है तो वे निर्मल से कहते हैं वे उसकी प्रयोगशाला देखना चाहेंगे और हाँ उसके घर शाम का खाना भी खायेंगे।
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निर्मल अति उत्साहित घर आकर अपनी बात बताने लगते हैं, अनु कुछ कहने लगती है तो उसे रोक देते हैं तो अनु पूछ बैठती है " हमेशा अपनी ही सुनाओगे, कभी मेरी नहीं सुनोगे? और अनु, निमर्ल को अपना फैसला सुना देती है कि वो शाम को दीपक के साथ हमेशा के लिये अपने पिता के घर जा रही है।

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निर्मल बहुत आहत होता है पर अनु से अनुरोध करता है कि जहां दस साल निकाले वहां एक दिन के लिये और रुक जाये क्यों कि कर्नल त्रिवेदी खाने पर आने वाले हैं। अनु एक बार फिर मान जाती है।
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शाम को कर्नल त्रिवेदी सीमा के पिताजी के साथ घर आते हैं और जब उन्हें पता चलता है कि अनु गायिका है तो वे अनु से बहुत कहते हैं कि अनु गाना गाये तब अनु गाना गाती है " हाय रे वो दिन क्यूं ना आये..

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कर्नल त्रिवेदी प्रयोगशाला देखते समय अनु से कुछ बाते पूछते हैं जिससे उन्हें पता चल जाता है कि अनु, निर्मल के प्रयोगशाला में ही सो जाने के बाद उसकी सेवा करती है, कर्नल त्रिवेदी को अपनी कहानी याद आजाती है उन्होने भी तो यही सब किया था अपनी पत्नी के साथ, आज उन्हें पछतावा होता है पर जब उनकी पत्नी इस दुनियां में नहीं है।

गाने और खाने के बाद सीमा के पिताजी निर्मल के आगे नतमस्तक हो जाते हैं और बीस हजार रूपये का चेक देते हुए कहते हैं "यह आपके त्याग और मेहनत के लिये एक छोटा सा नजराना.. तब कर्नल त्रिवेदी निर्मल के हाथ से चेक ले लेते हैं और सीमा के पिताजी से कहते हैं अगर तुम वाकई त्याग और तास्या को यह चेक देना चाहते हो तो यह चेक अनु को दों, क्यों कि त्याग तो अनु ने किया है। अनु अपनी इस तारीफ से दंग रह जाती है और सीमा के पिताजी वह चैक अनु को दे देते हैं।

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अगली सुबह अनु के जाने का समय हो गया है पर अनु घर के कामों में व्यस्त है, बाहर दीपक बार बार हॉर्न बजा रहा है। निर्मल जब अनु को पूछते है अनु तुम्हारी गाड़ी....?
अनु कहती है क्या तुम् मुझ पर इतना भी अधिकार नहीं रखते? मुझे इतना भी नहीं कह सकते चली जाओ, फिर यहां कभी ना आओ।

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इतना सुन कर निर्मल की आँखों से आँसु बह निकले और दोनो ...

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यह समीक्षा आपको कैसी लगी? अगर आपको मेरा यह प्रयास अच्छा लगा हो तो भविषय में और भी फिल्में दिखाई जायेंगी।

Wednesday 20 August, 2008

महफिल की पहली वर्षगांठ और दो मधुर गीत

जिसे सुन आप निश्चय ही प्रसन्न हो जायेंगे... और हाँ महफिल पर आज तक बजाये गये सारे गीतों के लिंक एक साथ।

देखते देखते महफिल को एक साल पूरा हो गया, पुराने गीतों को एक जगह एकत्रित करने का मन हुआ। कुछ मेरे संकलन में से , कुछ चोरी चकारी कर एकत्रित किये गये गीतों को फिलहाल कुछ खास श्रोतावर्ग नहीं मिला। शायद भारतिय शास्त्रीय संगीत पर आधारित इतने मधुर गीतों का जमाना अब नहीं रहा, पर मैं अपनी ही धुन में इस पर गीत चढ़ाये जा रहा हूँ। पिछले एक साल में ५० पोस्ट भी मैं इस पर नहीं पर चढ़ा पाया। खैर ..
आज पहली वर्षगांठ पर मैं अपनी सबसे पसंदीदा गीतों में से दो गाने यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ये दोनों ही फिल्म आलाप के गीत हैं, आलाप फिल्म उन फिल्मों में से एक है जिनमें अमिताभ और सभी कलाकारों ने अपना सर्वश्रेष्‍ठ अभिनय किया। इस फिल्म में अमिताभ के अलावा दूसरी जो सबसे बड़ी खास बातें थी वह थी जयदेव जी का सीधे दिल में उतर जाने वाला संगीत, डॉ राही मासूम रज़ा और हरिवंशराय बच्चनजी का गीत और ऋषिकेश मुखर्जी का लाजवाब निर्देशन।
बहरहाल आज इस पहले जन्मदिन पर मुझे उचित यही लगा कि संगीत की देवी माँ सरस्वती, शारदा, विद्यादायिनी.. को नमन किया जाये लीजिये सुनिये यह मधुर प्रार्थना...इस धुन को जयदेवजी ने अलाउद्दीन खाँ साहब की धुन से प्रेरित होकर राग भैरवी में बनाया है, और इसे गाया है लताजी और दिलराज कौर ने।








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आलाप फिल्म के इस दूसरे गीत को जब भी मैं सुनता हूँ पता नहीं क्यों आँखें नम हो जाती है। इस सुंदर गीत को गाया है दक्षिण के महान गायक डॉ के जे येसुदास ने। येसुदास हिन्दी बिल्कुल नहीं जानते पर इस गीत में उनका हिन्दी का उच्चारण कितना बढ़िया है।
यह हिन्दी फिल्मों का दुर्भाग्य ही है कि येशुदास जैसे कलाकारों से हिन्दी में ज्यादा गाने नहीं गवा सके।
अगर मुझे हिन्दी फिल्मों के शीर्ष १०० गीतों की सूचि बनाने को कहा जाये तो निश्चय ही इस गीत का क्रमांक बहुत ऊपर होगा।








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इन दोनों गीतों को सुनने के बाद बताईये कि ये दोनों गीत आपको कैसे लगे?
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अब प्रस्तुत है पिछले साल में प्रकाशित सारी पोस्ट के लिंक एक ही जगह
एक दुर्लभ गाना पहाड़ी सान्याल/ कानन देवी की आवाज में
ज्युथिका रॉय का गाया एक गाना - चुपके चुपके बोल
सरस्वतीदेवी का दुर्लभ गाना
क्या आपने मुबारक बेगम का यह गाना सुना है ?
ये किसके इशारे जहाँ चल रहा है?
कुछ और ज़माना कहता है, कुछ और है जिद मेरे दिल की
एम कांई दिलीप कुमार बनातु नथी- युसुफ़ साहब की आवाज में एक गाना सुनिये
क्या आपने इरा नागरथ के गाने सुने हैं?
सपना बन साजन आये और बीता हुआ एक सावन... वाह जमाल सेन
गाना जो आप बार बार सुनना चाहेंगे
गायकी में शोहरत की बुलंदियों से किराना की दुकानदारी तक: जी एम दुर्रानी
पाकिस्तान के महान गायक सलीम रज़ा का एक मधुर गाना
चार महान गायकों के पहले गाने
मशहूर गायक जिन्हें अंतिम दिनों में भीख तक मांगनी पड़ी
प्रिय पापा अब तो आपके बिना....... (गुजराती गीत)
आ मुहब्बत की बस्ती बसायेंगे हम
श्याम म्हाने चाकर राखोजी- तीन स्वरों में मीरां का एक भजन
दुनिया ये दुनिया, तूफान मेल -- हिन्दी और बांग्ला में सुनिये
दीकरो मारो लाडकवायो: एक सुंदर गुजराती लोरी (गुज्रराती)
लताजी का यह गाना शायद आपने नहीं सुना होगा!
भूल सके ना हम तुम्हें: मन्ना डे द्वारा संगीतबद्ध गीत
दिले नाशाद को जीने की हसरत हो गई तुमसे... एक खूबसूरत मुजरा (गज़ल)
तेरी आँखों को जब देखा, कँवल कहने को जी चाहा - मेहदी हसन की एक उम्दा गज़ल-
ओ वर्षा के पहले बादल: जगमोहन
दो मधुर होली गीत ...
शबाब (१९५४) फ़िल्म के तीन मधुर गीत !!!
संगीतकार रोशन साहब का एक ही धुन का दो फिल्मों में सुंदर प्रयोग !!!
प्यारी तुम कितनी सुंदर हो: जगमोहन
ये ना थी हमारी किस्मत के विसाले यार होता : नूरजहाँ और सलीम रज़ा
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गये
ऋतु आये ऋतु जाये सखी री... चार रागों में ढ़ला एक शास्त्रीय गीत
देवता तुम हो मेरा सहारा: रफी साहब के साथ भी
दे उतनी सज़ा- जितनी है खता.. सलीम रज़ा
इस दिल से तेरी याद भुलाई नहीं जाती... रफी साहब
लाई किस्मत आँसुओं का जाम क्यूं..?
प्रीत में है जीवन: सहगल साहब का एक और यादगार गीत !!!
मिला दिल, मिल के टूटा जा रहा है
हमारी ख़ाक में मिलती तमन्ना देखते जाओ: राग हंसकिंकिनी पर आधारित एक गीत
अनिल दा की पुण्य तिथी पर उन्ही की आवाज में गाया हुआ एक गीत
ऐ मेरे हमसफर: अभिनेत्री नूतन का गाया एक दुर्लभ गीत
स्वतंत्रता दिवस पर किशोर कुमार का गाया हुआ एक बेशकीमती और दुर्लभ गीत !!
बादल देखी डरी हो स्याम.... ज्यूथिका रॉय
ना ना बरसो बादल , आज बरसे नैन से जल: लताजी
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