दे उतनी सज़ा- जितनी है खता.. सलीम रज़ा
पाकिस्तान के मशहूर गायक सलीम रज़ा का गाया हुआ एक और मधुर गीत। पाकिस्तानी फिल्म दोशीजा 1962 , संगीतकार मास्टर इनायत हुसैन।
चली गयी हैं वो बहारे, वो खुशी के दिन गये
अब जिऊँगा क्या के जीने के सहारे छिन गये ।
इन्साफ़ न था जो तूने किया,
दे उतनी सजा है जितनी खता
तू पास भी है और दूर भी है
तू मिल न सके मैं पा न सकूँ
मुझ जैसा कोई मजबूर भी है
देता हूँ तुझे आवाज अगर,
आती है मुझे अपनी ही सदा
इंसाफ़ न था जो तूने किया...
ये तुझको लगी है किसकी नजर
है नाज कहाँ अंदाज कहाँ
क्या देख रही है बुत बनकर
खामोश है क्यों बेजान है क्यों
ऐ जान-ए-वफ़ा उठ जाग जरा
इंसाफ़ न था जो तूने किया...
आ अपने जहाँ को छोड के आ
पत्थर के कफ़स को तोड के आ
आ होश में आ, आ होश में आ....
14 टिप्पणियाँ/Coments:
इन्साफ ना था जो तुमने किया...
दे उतनी सजा , जितनी है खता
bahut khub
बहुत बढ़िया सागर भाई. इसी तरह सुनवाते रहिये. बहुत अच्छा गीत. बहुत बहुत शुक्रिया.
बेहद सादगी से गाया गया बढ़िया गीत सागर भाई! धन्यवाद.
जानदार। बधाई।
bahut khoob....
बहुत ही सुंदर सागर जी पहली बार सुना बहुत अच्छा लगा
सागर भाई ये नग़मा सुनवाने के लिये शुक्रिया. देखिये तो सही भारतीय उप-महाद्वीप में सुगम संगीत की कैसी बयार बहती थी. सलीम रज़ा का अंदाज़ मेहंदी हसन या तलत महमूद से कितना मिलता जुलता है. रेडियो के स्वर्णिम दौर की बंदिशें हैं ये वो ज़माना था सागर भाई जब रेडियो अपने आप में एक विश्व-विद्यालय हुआ करता था और पूरे संगीत परिदृष्य पर उसका ख़ासा असर हुआ करता था...फ़िल संगीत पर भी रेडियो की सुगम रचानों का प्रभाव था.आकाशावाणी या ऑल इंडिया रेडियो की बड़ी ताक़त हुआ करती थी...इसी रिवायत को रेडियो पाकिस्तान ने विभाजन के बाद निभाया बरसों तक. मेहंदी हसन साहब ने ख़ुद मुझे कहा था कि रेडियो ने जो गुलूकार तैयार किये उन्ही से लाइट म्युज़िक के सिलसिले चले. बेहतरीन कम्पोज़र,लाजवाब गायक रेडियो की कैसी नायाब धुनो को सजाते थे. फ़िल्म संगीत के अलावा रेडियो ने ग़ैर फ़िल्मी संगीत को आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया. रफ़ी साहब,मन्ना डे,युनूस मलिक, शांता सक्सैना,नीलम साहनी,तलत साहब,रूना लैला,सुमन कल्याणपुर आदि कई कलाकारों ने सुगम संगीत विधा को समृध्द किया. हर रेडियो स्टेशन पर एक संगीतकार हुआ करता था ...और बनती थीं कई अनमोल रचनाएं.मधुकर राजस्थानी,शमीम जयपुरी,अमीक़ हनफ़ी,सुदर्शन फ़ाकिर,उध्दवकुमार,रमानाथ अवस्थी,जाँ निसार अख़्तर,वीरेंद्र मिश्र , नीरज जैसे कई लब्ध-प्रतिष्ठित रचनाकारों से बाक़यदा गीत-ग़ज़ल लिखवाइ जातीं थी.के महावीर,मुरली मनोहर स्वरूप,रमेश नाडकर्णी ,सतीश भाटिया जैसे गुणी मौसिकार इन रचनाओं को संगीतबध्द करते और रेडियो सुरीला हो जाता . न कैसैट्स मिलते थे और न सीडीज़ ...बस रेडियो का आसरा था. आपने सलीम रज़ा की आवाज़ सुनवा कर मुझे सत्तर - अस्सी के गलियारों
की सैर करवा दी...मन की गहराई से आभार आपका.
वाह सागर भाई,
आज सुबह सुबह ये गीत सुनकर मन खुश हो गया है ।
इस गीत को सुनकर लग रहा है कि किसी एक गायक में ही अलग अलग समय पर विभिन्न महान गायकों की आत्मा ने कब्जा कर लिया हो ।
शुरूआत होती है, तलत साहब टाईप के प्रीलूड से ।
(प्रीलूड का एक हिस्सा "मिल गयी हैं वो बहारे" कुछ कुछ "वो सुबह कभी तो आयेगी" की धुन से प्रभावित सा लगता है)
उसके बाद हेमन्त दा से अंदाज में गीत शुरू होता है और इस गीत की कुछ पंक्तियों का अन्त मन्नाडे सरीखे मधुर आलाप से होता है ।
ये तुझको लगी है किसकी नजर,
है नाज कहाँ अंदाज कहाँ ।...इस पूरे अंतरे में तो मन्ना डे का अंदाज साफ़ दिख रहा है ।
और गीत के सबसे अंत में तो ऐसा लगता है कि नौशाद साहब और रफ़ी साहब की जोडी अपने आलाप से गीत को उसकी मंजिल पर ले जा रही हो ।
इस टिप्पणी के बाद, इस गीत को एक बार मेरी नजर से भी सुनियेगा, प्लीज...:-)
@कंचनजी, मीत भाई, अशोक पांडेजी, प्रभाकर पाण्डेयजी, रंजनाजी
आपको गीत बहुत पसन्द आया, मन खुश हो गया दरअसल संगीत किसी सरहदों में नहीं बंध पाता और बढ़िया संगीत चाहे पाकिस्तान से हो या भारत से हमें संगीत और उस कलाकार की कद्र करनी ही चाहिये।
आप सब का इस तरह उत्साहवर्धन मिलता रहा तो मेरी कोशिश रहेगी की मैं और बढ़िया गीत आपको सुनवा सकूं।
Saleem Raja ka gaya hua yeh geet behad nirala hai aur mein Rohillaji ke vaktavya se sahmat hun ki inke andaaz mein talat mahmood, manna de aur rafi sahab ki adayigi nazar aati hai. Maine aaj se pehle kabhi is fankar ko nahi suna, aur ab sunkar kaafi achha laga. Shukriya Sagarji is gaane ko sunwane ke liye.
@ संजय भाई साहब
आपकी टिप्पणी जब जब भी मिली है मन बहुत ही खुश हुआ है। संगीत के प्रति आपकी जानकारी कमाल की है, मैं नतमस्तक हूँ।
आपने जिन कलाकारों के नाम यहाँ लिखे शायद उनमें से मैने अभी तक नहीं सुने। अब उनकी खोज कर उन्हें सुनना ही पड़ेगा।
आपको गीत पसन्द आया, यह जानकर ही पफुल्लित हुआ जा रहा हूँ।
@ नीरज भाई
आभार, इतनी सुन्दर टिप्पणी के लिये।
मैं आज तक रज़ा साहब को तलत साहब की आवाज से मिलती हुई आवाज ( voice of Talat Mahamood) की वजह से ही सुनता, पसन्द करता था।
आज आपकी टिप्पणी को पढ़ कर फिर से गीत को सुना और एक नया ही गीत लगा। सचमुच वे कभी मन्नाडॆ दा, कभी तलत साहब और कभी रफी साहब की तरह गाते हुए लगे।
सागर भाईस्सा ,
सलीम रज़ा जी का गाया ये गीत बडा सुरीला लगा -
और सारी टिप्पण्णी पढकर बहुत खुशी हुई , हिन्दी ब्लोग को आप सभी सम्र्ध्ध कर रहे हैँ -
-- लावण्या
मंत्र मुग्ध करने वाला गीत , शुक्रिया !! गुलाम अली , मेहंदी हसन , नूरजहाँ , मलिखा पुखराज और अब सलीम को सुनने के बाद इस भूखंड काअ विभाजन बेमानी लगता है ।
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