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कल जल्दबाजी में बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई। रूना लैला के गीत पर पोस्ट लिखना चाह रहा था, मैटर लिख दिया और कॉफे में कुछ ग्राहक आ गये तो उन्हें निबटाने के बाद जब वापस काम शुरु किया तो यह याद ही नहीं रहा कि गीत कौनसा पोस्ट करना है। गाना सुना... वह मिर्जा गालिब का था। और उस पर मैटर को लिख कर पहले मैटर के साथ जोड़ कर पोस्ट कर दिया। मैं क्षमा चाहता हूँ , महफिल के चाहकों से क्यों कि मिर्ज़ा गालिब की वह गज़ल सुमन कल्याणपुर की आवाज में थी ना कि रूना लैला की! सुमन कल्याणपुर के स्वर में गाई इस गज़ल के संगीतकार का फिलहाल पता नहीं चला है।
आपने मिर्ज़ा गालिबمرزا اسد اللہ خان की सुप्रसिद्ध गज़लदिलेनादांतुझेहुआक्याहै... कई गायकों की आवाज में सुनी होगी। लगभग सभी गायकों ने इस सुन्दर गज़ल को अपने अपने तरीके से गाया। कुछ बहुत प्रसिद्ध हुई और कुछ गुमनामी के अंधेरे में खो गई। आज सुनिए इस सुन्दर गज़ल को सुमन कल्याणपुर की आवाज में। यह भी एकदम दुर्लभ है।
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार या इलाही, ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ काश पूछो की मुद्दआ क्या है
हमको उनसे वफ़ा कि है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
बहुत दिनों के बाद ही सही पर जो कुछ आप सुनेंगे, आनंदित हुए बिना नहीं रह पायेंगे। यह एक मराठी नाट्य संगीत का गीत है। इसे गाया है बकुल पण्डित ने। और १९४६ में प्रदर्शित हुए नाटक पाणिग्रहम में गाया जाता था। आप भाषा भले ही ना समझ पायें लेकिन आपको इस गीत को सुनने के बाद एक अलग तरह का सुकून मिलेगा।
हमारे प्रिय मन्नादा की प्रसिद्धी में एक और यशकलगी दादा साहब फाल्के पुरस्कार के रूप में जुड़ गई, लेकिन मुझ आलसी को एक पोस्ट मन्नादा को बधाई देते हुई एक पोस्ट लिखने का समय भी नहीं मिल पाया।
मन्नादा के लगभग सभी गाने आपने सुने होंगे, लेकिन फिर भी कुछ ऐसे गाने हैं जो बहुत मधुर और कर्णप्रिय होते हुए भी ज्यादा प्रसिद्ध नहीं हो पाये। आज ऐसा ही एक गीत मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं, मुझे विश्वास है आपमें से बहुत कम ही लोगों ने इस गीत को सुना होगा। यह गीत फिल्म एक से बाद एक (ek ke baad ek) का है। इस गीत का संगीत एस.डी.बर्मन (दा) का है। इस फिल्म के मुख्य कलाकार देवानन्द, तरला मेहता और शारदा थे।
इन तरला मेहता ने रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी में सरोजिनी नायडू की और एक चादर मैली सी के अलावा कुछेक फिल्मों में भी अभिनय किया था पर पता नहीं क्यों इनका नाम इतना सुना हुआ नहीं लगता।
हां हम गीत की बात कर रहे थे.. इस फिल्म में दो तीन और भी गीत हैं पर एक प्रेम गीत ये झिझकने- ये ठिठकने ये लुभाने की अदा- तू वही , चह रही है, सर झुकाने की अदा... ठुमक-ठुमक चली है तू किधर जो मोहम्मद रफी का गाया हुआ है बहुत ही कर्णप्रिय है। परन्तु आज मैं जो गीत सुना रहा हूं उसके बोल हैं.. न तेल और न बाती न काबू हवा पर,दिये क्यों जलाये चला जा रहा है।
आईये गीत सुनते हैं।
न तेल और न बाती न काबू हवा पर
दिये क्यों जलाये चला जा रहा है
उजालों को तेरे सियाही ने घेरा
निगल जायेगा रोशनी को अन्धेरा
चिरगों की लौ पर धुआँ छा रहा है
दिये क्यों जलाये चला जा रहा है
न तेल और...
न दे दोष भगवान को भोले भाले
खुशी की तमन्ना में ग़म तूने पाले
तू अपने किये की सज़ा पा रहा है
दिये क्यों जलाये चला जा रहा है
न तेल और...
तेरी भूल पर कल यह दुनिया हँसेगी
निशानी हर इक दाग़ बनकर रहेगी
तू भरने की खातिर मिटा जा रहा है
दिये क्यों जलाये चला जा रहा है
न तेल और...
मैने कई बार पहले भी जिक्र किया था कि मेरे पास दो ऑडियो कैसेट्स है जिनका नाम है The Vintage Era, इस संग्रह के कुछ गीत मैं आपको पहले सुना चुका हूं। आज बैठे बैठे एक और गीत याद आया " नगरी कब तक यूं ही बरबाद रहेगी... यह 1944 में बनी फिल्म मन की जीत का है लेकिन ओस चाटने से भला कभी प्यास बुझती है? मैं इस फिल्म के सभी गीतों को सुनना चाहता था, दो गीत तो मेरे संग्रह में पहले से थे। पहला तो उपर बता चुका हूं और दूसरा ए चांद उम्मीदों को मेरी! अन्तर्जाल के अथाह समुद्र में खोजते ही एक और गीत मिल गया, और आज वही गीत मैं आज आपको यहां सुना रहा हूँ। फिल्म मन की जीत (1944) के संगीतकार वहीजुद्दीन ज़ियाउद्दीन अहमद (W.Z.Ahmed) हैं। गुजरात में जन्मे अहमद साहब बँटवारे के बाद पाकिस्तान में जाकर बस गये, और इनकी पत्नी नीना ने फिल्म मन की जीत के कई गीत गाये पर पता नहीं बाद में क्यों नीना के गाये गीतों की जगह दूसरे कलाकारों ने ले ली। खैर बहुत सी कहानियां हैं.. हम गीत पर आते है, यह गीत सितारा बाई कानपुरी ने गाया है। इसके गीतकार हैं जोश मलीहाबादी।
कुछ दिनों पहले मैं रेडियोवाणी की पुरानी पोस्ट्स देख रहा था। एक पोस्ट पर नज़र पड़ी जो हिन्दी फिल्मों की सबसे बढ़िया फिल्म दो आँखें बारह हाथ पर आधारित थी। उस पोस्ट में चालीसगांव वाले विकास शुक्लाजी ने एक बड़ी लेकिन बहुत ही जानकारीपूर्ण टिप्पणी दी थी।
उस टिप्प्णी में आपने कई मराठी गीतों का जिक्र किया था। साथ ही एक और गीत का जिक्र किया था जो अण्णा साहेब सी. रामचन्द्रजी की फिल्म घरकुल का था गीत के बोल थे "कोन्यात झोपली सतार, सरला रंग...पसरली पैंजणे सैल टाकुनी अंग ॥ दुमडला गालिचा तक्के झुकले खाली...तबकात राहिले देठ, लवंगा, साली ॥ साथ ही इस गीत की गायिका फैयाज यानि कुमारी फैयाज के बारे में बताते हुए लिखा था कि वे उपशास्त्रीयगायिका हैं और नाट्यकलाकार भी।
मैने इस गीत को नेट पर खोजना शुरु किया, कुछ मराठी मित्रों की मदद ली, पर गीत नहीं मिला। अचानक कुमारी फैयाज का एक गीत दिखा। उसे सुनते ही मैं उछल पड़ा। गीत मराठी में होने की वजह से ज्यादा समझ में नहीं आया लेकिन जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि गीत-संगीत किसी भाषा के मोहताज नहीं होते, वे सभी सीमाओं
से परे होते हैं, गीत सुनते ही मेरी आंखें बहने लगी।
कुमारी फैय्याज की इतनी दमदार कैसे हिन्दी संगीत प्रेमियों तक छुपी रही? क्या आप जानते हैं फैय्याज जी ने ऋषिकेश मुखर्जी दा की फिल्म आलाप में दो गीत गाये हैं ( शायद और भी गायें हो- जानकारी नहीं है) एक भूपिन्दर सिंह के साथ है और दूसरा अकेले आई ऋतु सावन कीगाया है! संभव हुआ तो इस गीत को भी बहुत जल्द सुनाया जायेगा।
छाया गांगुली की आवाज में जिसने भी कोई गीत सुना है उसे एकबारगी लगेगा कि छाया जी ही गा रही हैं।
लीजिये आप गीत सुनिये।
स्मरशील गोकुळ सारे
स्मरशील यमुना, स्मरशील राधा
स्मरेल का पण कुरूप गवळण
तुज ही बंशीधरा रे ?
रास रंगता नदीकिनारी
उभी राहिले मी अंधारी
न कळत तुजला तव अधरावर
झाले मी मुरली रे !
स्मरशील गोकुळ सारे
ऐन दुपारी जमीन जळता
तू डोहोवर शिणून येता
कालिंदीच्या जळात मिळुनी
धुतले पाय तुझे रे.
स्मरशील गोकुळ सारे
हिन्दी अनुवाद: दिलीप कवठेकर जी
प्रस्तुत गीत गोकुल की एक ग्वालन द्वारा कान्हा के लिये गाया गया है. ये ग्वालन कुरुप है, असुंदर है, इसलिये मन में एक दीन भाव लिये वह कान्हा से पूछ बैठी कि----
तुझे सारा गोकुल याद ही होगा, और याद होगी वह यमुना और वह राधा, मगर हे बंसीधर, क्या तुझे यह कुरूप ग्वालन याद है? जब तुम नदी किनारे रास में रंगे थे, मैं वहीं अंधेरे में खडी हुई थी.. और फ़िर तुम्हारे अनजाने में मैं तुम्हारे अधरों पर मुरली बन गयी थी... क्या तुम्हे ये सभी याद होगा? ऐन दोपहरी में जब ज़मीन तप रही थी, और तुम जमुमा के तट पर थकान मिटाने आ पहुंचे, तब कालिंदी के जल में मिल कर मैने ही तो तुम्हारे चरण धोये थे... कया तुम्हे ये सभी याद होगा ? वह कुरूप ग्वालन याद होगी?
किशोर कुमार भी क्या कलाकार थे, कुछ भी अगड़म बगड़म गा दें, मजेदार गीत बन जाता था! देखिये इस गीत में कैसे किशोरदा, देवानद को चिढ़ाते हुए कह रहे हैं "खाली पीली काहे को अक्खा दिन बैठ के बोम मारता है"
भारत के राष्ट्रगान एवं राष्ट्र गीत की तरह के भारत के कई राज्यों ने कुछ गीतों को राज्य गीत जैसा दर्जा दे रखा है। फिलहाल आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र इन दो राज्यों के राज्य गीत मेरे ध्यान में है और संयोग से मेरे संग्रह में भी है। आज आपको इसकी पहली कड़ी में महाराष्ट्र का गीत सुनवा रहा हूँ यह गीत श्रीपादकृष्ण कोल्हटकर (shripad krshna kolhatkar) ने लिखा है और संगीतकार शायद पं हृदयनाथ मंगेशकर हैं। इसे गाया है लता जी, ऊषा जी और हृदयनाथ मंगेशकर ने। आईये सुनते हैं।
बहु असोत सुंदर संपन्न की महा
प्रिय अमुचा एक महाराष्ट्र देश हा
गगनभेदि गिरिविण अणु नच जिथे उणे
आकांक्षांपुढति जिथे गगन ठेंगणे
अटकेवरि जेथील तुरंगि जल पिणे
तेथ अडे काय जलाशय नदाविणे पौरुषासि अटक गमे जेथ दु:सहा प्रासाद कशास जेथ हृदयमंदिरे सद्भावांचीच भव्य दिव्य आगरे रत्नां वा मौक्तिकांहि मूल्य मुळी नुरे रमणईची कूस जिथे नृमणिखनि ठरे शुद्ध तिचे शीलहि उजळवि गृहा नग्न खड्ग करि, उघडे बघुनि मावळे चतुरंग चमूचेही शौर्य मावळे दौडत चहुकडुनि जवे स्वार जेथले भासति शतगुणित जरी असति एकले यन्नामा परिसुनि रिपु शमितबल अहा
विक्रम वैराग्य एक जागि नांदती
जरिपटका भगवा झेंडाहि डोलती
धर्म-राजकारण समवेत चालती
शक्तियुक्ति एकवटुनि कार्य साधिती
पसरे यत्कीर्ति अशी विस्मया वहा
गीत मराठ्यांचे श्रवणी मुखी असो
स्फूर्ति दीप्ति धृतिहि जेथ अंतरी ठसो
वचनि लेखनीहि मराठी गिरा दिसो
सतत महाराष्ट्रधर्म मर्म मनि वसो
देह पडो तत्कारणि ही असे स्पृहा
द फर्स्ट इंडियल आईडल: मास्टर मदन ( The first Indian Idol: Mr. Madan)इस शीर्षक से परसों ( दिनांक 23.08.2009 को) हिन्दुस्तान टाइम्स में एक लेख छपा है। स्व. मास्टर मदन (singer Master Madan) पर इस लेख के लिये हि.टा के वरिष्ठ लेखक श्री प्रवीण कुमार दोंती (Praveen Kumar Donthi) इस महान गायक पर बहुत खोजबीन की। शिमला में उनके भाई मोहन जी का पता लगाया और मोहन जी के पुत्र जसपाल सिंह और पुत्री रविन्दर कौर से भी मदन जी के बारे में बात चीत की। कुछ दिनों पहले मैने स्व. मोहम्मद रफी साहब को समर्पित एक ब्लॉग पर मा. मदन (Mr. Madan) पर एक लेख पढ़ा; चुंकि मेरे पास उनके गाये हुए ये आठों गाने थे और ये उनके कई प्रशंसकों के लिये आज भी दुर्लभ थे। मैने उस पोस्ट पर टिप्प्णी छोड़ी कि जिन्हें यह गीत चाहिये कृपया मुझे मेल करें, मैं आठों गीत भेज दूंगा। इस टिप्पणी के बाद कई लोगों के मेल मिले और मैने उन्हें ये गीत भेजे। प्रवीण कुमार जी ने इस टिप्पणी को देखकर मुझे मेल किया और मेरा फोन नंबर लेकर मुझसे बात की, और मैने उन्हें भी गीत भेजे। उसके बाद यह लेख छपा और कई लोगों ने हिन्दुस्तान टाइम्स के उक्त लेख से मेरा पता जानकर गाने भेजने की फरमाईश की। मुझे लगा कि आज भी आठ में से छ: गीत कई लोगों ने नहीं सुने, उनके लिये आज भी ये गीत दुर्लभ हैं, तो क्यों ना इस पर एक पोस्ट लिख दी जाये ताकि जब भी लोग गूगल से सर्च करेंगे , उन्हें ये गीत मिल जायेंगे। मास्टर मदन पर हिन्दी में पहले कुछ पोस्ट्स आ चुकी हैं तो पोस्ट में मास्टर मदन के बारे में जानकारी देना मुझे उचित नहीं लगता। तो प्रस्तुत है स्व. मास्टर मदन के वे आठों गीत डाउनलोड लिंक के साथ। आप इन्हें सुन भी सकते हैं और डाउनलोड भी कर सकते हैं। गीत डाउनलोड करने के लिये हिन्दी में लिखे गीत के शब्दों पर क्लिक कीजिये।
हिन्दी फ़िल्मों में बाल मानसिकता और बच्चों की समस्याओं से सम्बन्धित फ़िल्में कम ही बनी हैं। बूट पॉलिश से लेकर मासूम और मिस्टर इंडिया से होते हुए फ़िलहाल बच्चों की फ़िल्म के नाम पर कूड़ा ही परोसा जा रहा है जो बच्चों के मन की बात समझने की बजाय उन्हें “समय से पहले बड़ा करने” में समय व्यर्थ कर रहे हैं। बाल मन को समझने, उनके मुख से निकलने वाले शब्दों को पकड़ने और नये अर्थ गढ़ने में सबसे माहिर हैं सदाबहार गीतकार गुलज़ार साहब। “लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा, घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा” तो अपने आप में एक “लीजेण्ड” गाना है ही, इसी के साथ “जंगल-जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फ़ूल खिला है…” जैसे गीत भी गुलज़ार की पकड़ को दर्शाते हैं।
हालांकि हिन्दी फ़िल्मों में विशुद्ध बालगीत कम ही लिखे गये हैं, फ़िर भी मेरी पसन्द का एक गीत यहाँ पेश कर रहा हूँ… जो सीधे हमें-आपको बचपन की शरारतों में ले जाता है, वह क्लास रूम, वह यार-दोस्त, वह स्कूल, वह मास्टरजी, वह शरारतें और मस्ती सब कुछ तत्काल आपकी आँखों के सामने तैर जाता है… गीत है फ़िल्म “किताब” का, बोल हैं “अ आ इ ई, अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिठ्ठी…”। गाया है पद्मिनी और शिवांगी कोल्हापुरे ने तथा धुन बनाई है पंचम दा ने। फ़िल्म में इसे फ़िल्माया गया है मास्टर राजू और अन्य बच्चों पर। मास्टर राजू गुलज़ार के पसन्दीदा बाल कलाकार रहे हैं और बच्चों के विषय पर ही बनी एक फ़िल्म परिचय में भी मास्टर राजू को लिया गया है, जब वे बहुत ही छोटे थे। फ़िल्म “किताब” एक बच्चे की कहानी पर आधारित है जिसका मन पढ़ाई में नहीं लगता था और एक दिन वह घर से भाग जाता है, लेकिन दुनिया की कठिनाईयों और संघर्षों को देखकर फ़िर से उसे अपना घर और माता-पिता की याद आती है और वह वापस आ जाता है।
इस गीत के बारे में गुलज़ार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यह लिखते समय मैंने खुद को बच्चा समझकर लिखा। बच्चे कैसी और किस प्रकार की तुकबन्दी कर सकते हैं और कितनी शरारतें कर सकते हैं यह कल्पना करके लिखा। आरडी बर्मन ने भी एक बार गुलज़ार के बारे में कहा है कि “हो सकता है कि यह आदमी किसी दिन अखबार की कटिंग लाकर कहे कि ये रहे गीत के बोल, इस पर धुन बनाओ…”, तो भाईयों और बहनों, अपने बचपन में खो जाईये और यह चुलबुला लेकिन मधुर, शरारती तुकबन्दियों से भरपूर फ़िर भी लय-ताल के ठेके देने वाला गीत सुनिये, तब पंचम दा तथा गुलज़ार जैसे लोग दिग्गज और महान क्यों हैं इसे समझना बेहद आसान हो जायेगा…
गीत के बोल कुछ इस प्रकार से हैं –
धुम तक तक धुम, धुम तक तक धुम… (2) अ आ इ ई, अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिठ्ठी चिठ्ठी में से निकली बिल्ली… (2) बिल्ली खाये जर्दा-पान काला चश्मा पीले कान… (2)
अ आ इ ई, अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिठ्ठी चिठ्ठी में से निकली बिल्ली… (2) कान में झुमका, नाक में बत्ती…(2) हाथ में जैसे अगरबत्ती (नहीं मगरबत्ती, अगरबत्ती, मगरबत्ती, अगर-अगरबत्ती) अगर हो बत्ती कछुआ छाप आग पे बैठा पानी ताप… (2) ताप चढ़े तो कम्बल तान वीआईपी अंडरवियर-बनियान वीआईपी अंडरवियर बनियान… (2)
धुम तक तक धुम, धुम तक तक धुम… (2) अ आ इ ई, अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिठ्ठी चिठ्ठी में से निकला मच्छर चिठ्ठी में से निकला मच्छर
मच्छर की दो लम्बी मूंछें मूंछ पे बांधे दो-दो पत्थर पत्थर पे एक आम का झाड़ मूंछ पे लेकर चढ़ा पहाड़ पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी, जोगी की एक जोगन होगी
(गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर देख चांद की ओर) पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी, जोगी की एक जोगन होगी जोगन कूटे कच्चा धान
धुम तक तक धुम, धुम तक तक धुम… (2) अ आ इ ई, अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिठ्ठी चिठ्ठी में से निकला चीता चिठ्ठी में से निकला चीता… (2) थोड़ा काला थोड़ा पीला चीता निकला है शर्मीला थोड़ा-थोड़ा काला, थोड़ा-थोड़ा पीला
(अरे वाह वाह, चाल देखो)
घूंघट डाल के चलता है मांग में सिन्दूर भरता है माथे रोज लगाये बिन्दी इंग्लिश बोले, मतलब हिन्दी
(इफ़ अगर इज़ है बट पर व्हाट, मतलब क्या) माथे रोज लगाये बिन्दी इंग्लिश बोले, मतलब हिन्दी हिन्दी में अलजेब्रा छान… वीआईपी अंडरवियर-बनियान वीआईपी अंडरवियर बनियान… (2)
सावधान…
यह गीत इस जगह पर आकर अचानक थम जाता है, क्योंकि क्लास रूम में मास्टरजी आ जाते हैं और बच्चों की मस्ती बन्द हो जाती है, लेकिन मेरा दावा है कि यदि इसी गीत को गुलज़ार लगातार लिखते रहते तो कम से कम 40-50 पेज का गीत तो लिख ही जाते और वह भी बच्चों की उटपटांग, लेकिन भोली और प्राकृतिक तुकबन्दियों में। विश्वास नहीं होता कि यही गीतकार इसी फ़िल्म में “धन्नो की आँखों में रात का सुरमा…” लिखता है जिसमें “सहर भी तेरे बिना रात लगे, छाला पड़े चांद पे जो हाथ लगे…” जैसी गूढ़ पंक्ति भी लिखता है… है ना गजब का “कंट्रास्ट”, लेकिन इसीलिये तो गुलज़ार साहब महान हैं…
(सम्प्रति पद्मिनी कोल्हापुरे अपने बेटे के लिये फ़िल्मों में ज़मीन तलाश रही हैं, शिवांगी कोल्हापुरे का विवाह शक्ति कपूर के साथ हुआ है जबकि इनकी एक और छोटी बहन तेजस्विनी कोल्हापुरे भी फ़िल्मों में ही हैं, जबकि सबके प्यारे गुलज़ार साहब “बन्दिनी” से लेकर “कमीने” तक का सफ़र लगातार जारी रखे हुए हैं एक से बढ़कर एक हिट गीतों के साथ…)
इस गीत को सुनने के लिये नीचे प्ले बटन पर चटका लगायें…
भले ही खाँ साहब ने शुद्ध बिलावल सही नहीं गाया हो, भले ही पखावजी का बांया अंगूठा नकली हो,भले ही तबले पर थाप हल्की पड़ी हो.... पर ज़ुईन खां साहब ने जितना भी गाया; बेदाला ही गया .. हमें तो उतना ही मधुर लगा जितना तानसेन ने गाया।
दूरदर्शन के दीवानों के लिये आज एक गीत पहेली! चंदन दास की इस सुन्दर गज़ल को पहचानिये... न.. न.. न.. इस पहेली में कोई पुरुस्कार नहीं मिलेगा सो अनुरोध है कि गूगल बाबा की शरण लिये बिना इस पहेली को हल करने की कोशिश कीजिये कि यह गज़ल आपने कहां सुनी है? दूसरा और तीसरा हिंट दे रहा हूं कि यह आपने कम से कम बीस साल पहले सुनी होगी तब शाहिद कपूर बहुत छोटे बच्चे रहे होंगे!!! एक और पहेली यह है कि अगर यह दूसरा हिंट है तो पहला और तीसरा हिंट कौनसा है?
न जी भर के देखा न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नही कई साल से कुछ ख़बर ही नही कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
उजालों कि परियां नहाने लगीं उजालों कि परियां नहाने लगीं नदी गुनगुनाये ख़यालात की नदी गुनगुनाये ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गयी मैं चुप था तो चलती हवा रुक गयी ज़बाँ सब समझते है जज़्बात की ज़बाँ सब समझते है जज़्बात की
सितारों को शायद खबर ही नही सितारों को शायद खबर ही नही मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की
आईये आज आपको एक बहुत ही खूबसूरत गीत सुनवाते हैं, इस गीत को अनिलदा ने राग हेमन्त में ढ़ाला है, ताल है दादरा। लताजी जब इस गीत के पहले और दूसरे पैरा की पहली पंक्तिया गाती है तब वे लाईनें मन को छू सी जाती है।
आप ध्यान दीजिये इन दो लाईनों पर... हाल ना पूछ चारागर और रो दिया आसमान भी ... को। कमर ज़लालाबादी के सुन्दर गीत और अनिल दा के संगीत निर्देशन के साथ लता जी ने किस खूबसूरती से न्याय किया है; गीत 1955 में बनी फिल्म जलती निशानी का है।
रूठ के तुम तो चल दिए, अब मैं दुआ तो क्या करूँ जिसने हमें जुदा किया, ऐसे ख़ुदा को क्या करूँ जीने की आरज़ू नहीं, हाल न पूछ चारागर दर्द ही बन गया दवा, अब मैं दवा तो क्या करूँ सुनके मेरी सदा-ए-ग़म, रो दिया आसमान भी-२ तुम तक न जो पहुँच सके, ऐसी सदा को क्या करूँ
पिछले दिनों संजय पटेल जी ने संगीत मार्तण्ड ओमकारनाथ ठाकुर जी के स्वर में राग मालकौंस में रची बंदिश पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे.. सुनवाई और शीर्षक में एक हल्की सी शिकायत कर दी कि अब कहाँ सुनने को मिलता है ऐसा भरा-पूरा मालकौंस ?" उनकी शिकायत जायज भी तो है। इस कड़ी में मैं भी यही शिकायत्त करना चाहूंगा साथ ही आपको राग मालकौंस की एक और बंदिश सुनवाना चाहूंगा। यह बंदिश लता मंगेशकर जी ने खुद द्वारा निर्मित मराठी फिल्म कंचन गंगा में गाई है। संगीतकार हैं पं वसंत देसाई। आईये सुनते हैं...
सावन की ऋतु, बरखा की बूंदे और मल्हार राग...अगर यह तीनों एक साथ मिल जायें तो किसको नहीं सुहायेगा! पर हमारी नायिका को भी सावन की रुत नहीं भा रही, अपनी सखी से शिकायत कर रही है कि कैसे भाये सखी रुत सावन की.......! क्यों कि उसके पिया उसके पास नहीं है, मिलना तो दूर की बात आने की पाती का भी पता ठिकाना नहीं,ऐसे में नायिका अपनी मन की बात अपनी सखी को ही गाकर सुना रही है।
आप सब जानते हैं अन्ना साहब यानि सी रामचन्द्र और लताजी ने एक से एक लाजवाब गीत हमें दिये। फिल्म पहली झलक का यह गीत सुनिये देखिये सितार और बांसुरी का कितना सुन्दर प्रयोग मल्हार राग में अन्ना साहब ने किया है। और हां.... यह गीत फिल्म पहली झलक का है।
कैसे भाये सखी रुत सावन की-२ पिया भेजी ना पतियां आवन की-२ कैसे भाये सखी रुत सावन की छम छम छम छम बरसत बदरा-२ रोये रोये नैनों से बह गया कजरा आग लगे ऐसे सावन को-२ जान जलावे जो बिरहन की कैसे भाये सखी रुत सावन की-२ धुन बंसी की सावनिया गाये आऽऽऽ सावनिया गाये धुन बंसी की सावनिया गाये-२ घायल मन, सुर डोलत जाये बनके अगन अँखियन में भड़के-२ आस लगी पिया दरशन की कैसे भाये सखी रुत सावन की-२ पिया भेजी ना पतियां आवन की-२ कैसे भाये सखी रुत-२ आलाप आपके गुनगुनाने के लिये म म रे सा, नि सा रे नि ध नि ध नि सा म प द नि सा, रे सा रे नि सा ध निऽऽ प म रे प ग म रे सा, प म रे प म नि द सा म प द नि सा, नि नि प म ग म रि सा नि सा प म ग म रे सा नि सा प म ग म रे सा नि सा सावन की कैसे भाये सखी रुत आऽ सावन की
वर्षों पहले जब मुझे पुराने गाने सुनने का शौक लगा था तब बहुत से ऑडियो कैसेट्स खरीदे। एक दिन एक बढ़िया सैट हाथ लगा नाम था The Sentimental Era- 1936-46 इस सैट में कई बढ़िया गीत थे जिसमें से रहमत बानो का गाया हुआ एक गीत मैं तो दिल्ली से दुल्हन लाया रे ओ बाबूजी आपको मैं महफिल में आपको सुनवा चुका हूं । इस संग्रह में एक और भी गीत था (शायद अछूत कन्या फिल्म का है) कित गये ओ खेवनहार... जो मैं ऐसा जानती प्रीत किये दुख: होय नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत ना करियो कोय.. कभी मौका मिला तो आपको यह गीत भी सुनवाया जायेगा। बहुत सारे बढ़िया गीतों में एक गीत मुझे बहुत पसन्द आया था क्यों कि इसमें नायिका भगवान को ही चुनौती देती है। आज मैं आपको जो गीत सुनवाने जा रहा हूं वह फिल्म चित्रलेखा का है। गीत की बात करने से पहले आपको एक आश्चर्यजनक बात बताना चाहूंगा कि इस फिल्म के निर्देशक स्व. केदार शर्मा ने चित्रलेखा नाम से दो बार फिल्म बनाई पहली के नायक- नायिका थे मिस मेहताब और नंदरकर यह 1941 में बनी थी तथा दूसरी बार 1964 में बनी थी और उसके मुख्य कलाकार पद्म श्री अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार थे। 1964 में बनी चित्रलेखा का मशहूर गाना आपने सुना ही होगा- संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे? जैसा कि मैने उपर जिक्र किया था कि The Sentimental Era एल्बम के एक गीत में नायिका भगवान को चुनौती देती है यह गाना 1941 में बनी चित्रलेखा में भी था गीत में नायिका भगवान से कहती है ...... तुम जाओ जाओ भगवान बनो इन्सान बने तो जाने.... यह गीत रामदुलारी ने गाया था। इस फिल्म के लिये निर्देशक केदार शर्मा ने संगीतकार उस्ताद झंडे खां साहब को सारे गीत भैरवी में ढालने को कहा था और उस्ताद जी ने वैसा किया भी। आईये अब गीत सुनते हैं।
तुम जाओ जाओ भगवान बने इन्सान बने तो जाने
तुम उनके जो तुमको ध्यायें जो नाम रटें, मुक्ति पावें हम पाप करें और दूर रहे तुम पार करो तो माने
तुम जाओ बड़े भगवान बने तुम जाओ जाओ भगवान बने... तुम उनके...
दोस्तों सावन का महीना चालू हो गया है, भले ही जम के पानी ना बरस रहा हो लेकिन हल्की फुहारें ही सही; तन मन को शीतलता तो दे रही है, ऐसे में अगर राग मल्हार सुना जाये और वो भी शहंशाह ए गज़ल मेहदी हसन साहब के स्वर में तो कितना आनन्द आयेगा?
हसन साहब बीमार हैं, आपने उनकी कई गज़लें सुखनसाज़ पर सुनी ही है। आईये आज आपको हसन साहब की आवाज में और राग मल्हार (राग गौड़ मल्हार) में ढली एक छोटी सी नज़्म सुनाते हैं। आप आनन्द लीजिये और हसन साहब की सलामती के लिये दुआ कीजिये।
फ़ूल ही फ़ूल खिल उठे मेरे पैमाने में आप क्या आये बहार आ गई मैखाने में आप कुछ यूं मेरे आईना-ए-दिल में आये जिस तरह चांद उतर आया हो पैमाने में
(यह शेर प्रस्तुत गज़ल में नहीं है, सुनने को भले ना मिले पढ़ने का आनन्द तो उठाया ही जा सकता है।
आपके नाम से ताबिन्दा है उनवा-ए- हयात वरना कुछ बात नहीं थी मेरे अफ़साने में
महान संगीतकार मदनमोहन जी के बारे में अल्पना वर्मा जी ने अपने लेख में विस्तृत जानकारी दी, उनके गाये गीत भी सुनवाये। आज मैं आपको उनके बारे में ज्यादा ना बताते हुए सीधे उनका संगीतबद्ध एक सुन्दर गीत सुनवाता हूं। यह गीत राग गौड़ सारंग में ढला हुआ है पर इसमें अन्य रागों की छाया भी महसूस की जा सकती है, इस सुंदर गीत की कल्पना मदनमोहन जी से ही की जा सकती है।
यह गीत फिल्म निर्मोही (Nirmohi 1952) का है।इस गीत को गाया है लता मंगेशकर ने और गीतकार हैं इन्दीवर।
इस फिल्म में मुख्य भूमिकायें नूतन और सज्जन ने निभाई थी।
दुखियारे नैना ढूँढ़ें पिया को
निसदिन करें पुकार
दुखियारे नैना
फिर क्या आएँगीं वो रातें
लौट गईं हैं जो बारातें
बीते दिन और बिछड़ा साथी
बहती नदी की धार
दुखियारे नैना ...
राह में नैना दिया जलाएँ
आप जलें और जिया जलाएँ
जिस से जीवन भी जल जाए
वो कैसी जलधार
दुखियारे नैना ...
इस सुन्दर गाने को जमालसेन जी ने संगीतबद्ध किया था फिल्म शोखियाँ के लिए परन्तु किसी कारण से यह गाना रिलीज नहीं हो पाया। बाद में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म "पहला कदम" में इसे शामिल किया गया।
इसे लताजी ने गाया गाया है। इस गाने के शब्दों की खूबसूरती पर खास ध्यान दीजिये। शब्दों को किस खूबसूरती से पिरोया गया है जैसे- आँखों में कटी- जब भी कटी- रात हमारी।हर पैरा की अन्तिम लाईन को भी लता जी ने कुछ सैकण्ड रुक कर कुछ अलग तरीके से गाया है।
बीता हुआ एक सावन एक याद तुम्हारी ले देके ये दो बातें दुनिया है हमारी बीता हुआ एक सावन
मजबूर बहुत दूर ये तकदीर के खेते आराम से सोये ना कभी चैन से लेते आँखो में कटी, जब भी कटी, रात हमारी ले देके ये दो बातें....बीता हुआ सावन ...
एक बार बरसने दो बरसती है घटायें हम रोते हैं, दिन रात बता किसको बतायें हंसती है हमें देखके तकदीर हमारी ले देके ये दो बातें....बीता हुआ सावन ...
भरपाये मुहब्बत से, दिल टूट गया है तू रूठा तो, ले सारा जहाँ रूठ गया है, ये जहाँ रूठ गया है एक साथ दिये जाती है ये ठेस हमारी ले देके ये दो बातें....बीता हुआ सावन ...
लताजी के पता नहीं और कितने गीत हैं जो हमने सुने ही नहीं, जैसे जैसे खोजता हूं एक से एक लाजवाब नगीने मिलते जाते हैं। आज ऐसा ही एक और कम सुना-सुनाया जाने वाला गीत मिला है जो आपके लिये प्रस्तुत है।
यह गीत फिल्म नाजनीन 1951 का है। गीतकार शकील संगीतकार गुलाम मोहम्मद और इस फिल्म के मुख्य कलाकार मधुबाला और नासिर खान थे।
आइये गीत सुनते हैं।
ओ जिन्दगी के मालिक तेरा ही आसरा है-२
क्यूँ मेरे दिल की दुनिया बरबाद कर रहा है-२
ओ जिन्दगी के मालिक तेरा ही आसरा है
तुझको मेरी क़सम है बिगड़ी मेरी बना दे-२
या तू नहीं है भगवन दुनिया को ये बता दे
ऊँचा है नाम तेरा अपनी दया दिखा दे
क्या मेरी तरह तू भी मजबूर हो गया है
ओ जिन्दगी के मालिक तेरा ही आसरा है
ख़ामोश है बता क्यूँ सुन कर मेरा फ़साना-२
क्या पाप है किसी से दुनिया में दिल लगाना
अच्छा नहीं है मालिक दुखियों का घर जलाना
खुद ढाये खुद बनाये आखिर ये खेल क्या है
ओ जिन्दगी के मालिक तेरा ही आसरा है
बरबादियों का मेरी अंजाम जो भी होगा
ठु्करा के मेरी हस्ती नाकाम तू भी होगा
गर मिट गई मोहब्बत बदनाम तू भी होगा
यूँ बेवजह किसी का दिल तोड़ना बुरा है
देश में चुनाव सम्पन्न हो गये हैं और इस चुनाव में बहुत से लोगों ने हिन्दुस्तानियों को एक दूसरे से लडाने के प्रयास किये। इस गीत में ऐसे फ़िरकापरस्तों के लिये करारा जवाब भी है और अपने देश की संस्कृति की साझा झलकी भी,
फ़िल्म: धर्मपुत्र (1961) संगीत: नारायण दत्ताजी गीतकार: साहिर लुधियानवी गायक कलाकार: महेन्द्र कपूर, बलबीर और साथी
ये गीत कुछ कुछ कव्वाली की शक्ल लिये हुये है। गीत में ताली की थाप प्रारम्भ से बिल्कुल अलग सुनायी देती है लेकिन उसके बाद ताली की थाप सुनना थोडा मुश्किल है, ऐसे में क्या इसे कव्वाली कह सकते हैं? फ़िलहाल आप इस गीत को सुने और अपनी बेशकीमती राय से हमें अवगत करायें।
कुछ भी नहीं कह सकेंगे इन सुंदर गीतों के बारे में; बस आप तो इन दो गीतों को सुन लीजिये, और इन गीतों को रचने वाले कलकारों को दाद दें. कि क्या खूबसूरत गीत उन्होने बनाये। दोनों ही फिल्म चोर बाजार Chor Bazar(1954) से चोरी किये हैं। गीतकार हैं शकील बूंदायूंनी और संगीतकार हैं सरदार मलिक, और गाया है लताजी ने। फिल्म के मुख्य कलाकार शम्मी कपूर और सुमित्रा देवी हैं।
हुई ये हम से नादानी तेरी महफ़िल में जा बैठे
ज़मीन की खाक़ होकर आसमान से दिल लगा बैठे
हुआ खून-ए-तमन्ना इसका शिक़वा क्या करें तुमसे
न कुछ सोचा न कुछ समझा जिगर पर तीर खा बैठे
ख़बर क्या थी गुलिस्तान-ए-मुहब्बत में भी खतरे हैं
जहाँ गिरती है बिजली हम उसी डाली पे जा बैठे
न क्यों अंजाम-ए-उल्फ़त देख कर आँसु निकल आये
जहाँ को लूटने वाले खुद अपना घर लुटा बैठे
बड़ा अजीब सा प्रश्न है ना? लेकिन क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इतने गुणी गायक और संगीत के इतने बड़े ज्ञाता मुहम्मद रफी साहब ने किसी फिल्म में संगीत क्यों नहीं दिया। ये प्रश्न मेरे मन में बरसों से था और आखिरकार गुजरात समाचार के वरिष्ठ हास्य लेखक अशोक दवे की रफी साहब के गाये गैर फिल्मी सूचि से पता चला कि रफी साहब ने कुछ गानों में संगीत भी दिया है। सूचि में चार गानों के नाम दिये हैं वे निम्न है।
उठा सुराही
दूर से आये थे साकी सुनके
घटा है बाग है मय है सुबह है जाम है
चले आ रहे हैं वो ज़ुल्फ़ें बिखेरे
मैने अपना संग्रह संभाला तो पता चला कि उठा सुराही वाला गाना तो अपने पास है, पर ऑडियो क्वालिटी थोड़ी उन्नीस है सो नेट पर खोजा और आखिरकार ईस्निप्स पर ये गीत मिल भी गया।
तो पस्तुत है मुहम्मद रफी साहब द्वारा संगीतबद्ध गैर फिल्मी गीत उठा सुराही ये शीश.....
आपको याद होगा मैने पिछले साल आपको मन्नाडे द्वारा संगीतबद्ध एक मधुर गीत "भूल सके ना हम तुझे"
सुनवाया था। उस गीत से पता चलता है कि मन्नाडे कितने गुणी, कितने विद्वान कलाकार हैं। गायक होने के साथ वे कितने बढ़िया संगीतकार मन्नादा हैं हमें पता ना था।
ओर्कुट में मेरी एक मित्र हैं रिचा विनोद! वे हिन्दी गीतों की बहुत बड़ी संग्राहक होने के साथ बहुत बड़ी प्रशंसिका हैं। बहुत सारे पुराने गाने उनके विशाल संग्रह में है। मैने मेल से यह गीत रिचाजी को भेजा था, तो मेल के प्रत्युतर में रिचाजी ने मुझे मन्नादा के संगीतबद्ध दो गीत और भेज दिये। बंदा तो खुश खुश!!
वे दो गीत निम्न है जग कहता है मैं हूं अंधी- गीतकार प्यारे लाल संतोषी- फिल्म नैना 1953 और नहीं मालूम कि पिया जब से मिले तुम गीतकार कवि प्रदीप_ फिल्म चमकी। दूसरे गीत की ऑडियो क्वालिटी इतनी खास नहीं है और गाना का संगीत -गीत भी औसत सा ही है, परन्तु जग कहता मैं अंधी गीत बहुत ही मधुर है और ऑडियो भी ठीक है सो मुझे लगा यह गीत आपको भी सुनवाना चाहिये।
इस सुन्दर गीत को भेजने के लिये रिचा जी का बहुत बहुत धन्यवाद।
जग कहता है मैं हूं अंधी
मैं कहती अंधा जग सारा
मैने ज्योत जगा ली उनकीऽऽ
खोकर आंखों का उजियारा
दूनिया ना देखूं में
देखूं तो है दिनराती
मैं देखूं...
ओ मेरे तनमन, ओ मेरे जीवन
ओ मेरे साथी
देखूं तो दिन राती, मैं देखूं...
आंखों वाले अंधे हैं वोऽऽ
जो खुद को पहचान ना पाये-२
मैं तुमको पहचान गई रे-२
जगा प्रीत की बाती
मैं देखूं तो है दिन राती, मैं देखूं...
अपने अपने रंग में दुनियाऽऽ
अपना अपना राग सुनाये-२
अपनी लगन का ले एक तारा
तेरे गीत नित गाती
मैं देखूं तो है दिन राती, मैं देखूं...
आशाताई ने अपनी गायिकी में जो जो प्रयोग किये उनमें से कई हमने देखे- सुने हैं। संजय भाई पटेल जी ने हमें आशाजी की आवाज में मियां की मल्हार में एक तराना सुनाया था जिसे आज भी मैं कई बार सुनता रहता हूँ। आज मैं आशाजी के एक नये प्रयोग के बारे में बता रहा हूँ।
मीराबाई के प्रभाव से हिन्दी फिल्म जगत की कोई गायिका अछूती नहीं रह सकी। भारत रत्न एम. एस सुब्बुलक्ष्मी, लताजी, वाणी जयराम के अलावा कई गायिकाओं ने मीराबाई को गाया, तो भला आशाताई कैसे अछूती रहती!
मीराबाई की सहज समाधि पर आधारित इस रचना को सुनिये| आपको यूं महसूस होने लगेगा मानो आपके सामने आशाजी नहीं खुद मीराबाई अपने हाथों में इकतारा लेकर बजाती हुई झूम रही हो।
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे। उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥ ( ये पद प्रस्तुत गीत/भजन में नहीं है।)
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥
चलते चलते.. यही गीत आशाताई की ही आवाज में एक और दूसरे राग में- दूसरे रंग में सुनिये, साथ ही मीराबाई के अन्य भजन आशाताई कि आवाज में यहां सुनिये
1950 में बनी और दिलीप कुमार- नरगिस अभिनीत फिल्म जोगन (Jogan) दिलीप- नरगिस के अभिनय के अलावा मधुर गीतों के कारण भी बहुत ही लोकप्रिय हुई। इस फिल्म में संगीतकार बुलो सी रानी ने मीरा बाई के भजनों को बहुत ही सुन्दर धुनों में ढ़ाला था। सुन्दर धुन के साथ अगर गीतादत्त (रॉय) की आवाज मिल जाये तो गीत कितने सुन्दर बनेंगे; सहज ही कल्पना की जा सकती है। इस फिल्म में सभी गाने नरगिस पर फिल्माये गये हैं, स्वाभाविक है कि वे गीतादत्त ने ही गाये होंगे परन्तु आज जो गीत मैं आपको सुनवाने जा रहा हूँ उसे तलत महमूद ने गाया है। यह गीत फिल्म में पार्श्व में बजता है।
शिकारी, शिकारी सुन्दरता के सभी शिकारी कोई नहीं है पुजारी सुन्दरता के सभी शिकारी
महल-दोमहलों बीच खड़ी कोई चन्द्रकिरन सी नारी छल से बल से छल से बल से तन-मन-जोबन लूटे हाय शिकारी सुन्दरता के सभी शिकारी
बाग-बगीचों खिली कली तो आया वहीं शिकारी देख-देख जी भरा न उसका चुन ली कलियाँ सारी सुन्दरता के सभी शिकारी
बन-उपवन में सुन्दर हिरनी दौड़-दौड़ के हारी देख के कंचन काया उसकी पीछे पड़ा शिकारी सुन्दरता के सभी शिकारी _____________________________________________________________________________________
रहस्यवादी कवि सूरदास का साहित्य जगत में बहुत ऊंचा स्थान है। बचपन से हम सूरदास के बारे में पढ़ते आये हैं सो उनके बारे में हम सब जानते ही हैं, सो सीधे सीधे उनके एक भजन दीनन दुख: हरन देव सुनते हैं। यह सुंदर भजन जगजीत सिंह और पी. उन्नी कृष्णन ने गाया है। पहले जगजीत सिंह की आवाज में सुनते हैं।
मैं बरसों से जगजीत सिंह के स्वर में यह भजन सुनता आ रहा था पर आज इस्निप पर खोजने पर पी उन्नीकृष्णन की आवाज में भी यह गीत मिला। कर्नाटक शैली के गायक पी. उन्नीकृष्णन की आवाज में इस भजन को सुन कर एक अलग अनूभूति हुई। आप भी इसे सुनिये और दो अलग अलग शैलियों में इस भजन का आनन्द उठाईये।
दीनन दुख:हरन देव सन्तन हितकारी। अजामील गीध व्याध, इनमें कहो कौन साध। पंछी को पद पढ़ात, गणिका-सी तारी ।।१।। ध्रुव के सिर छत्र देत, प्रहलाद को उबार लेत। भक्त हेत बांध्यो सेत, लंक-पुरी जारी ।।२।। तंदुल देत रीझ जात, साग-पातसों अधात। गिनत नहीं जूठे फल, खाटे मीठे खारी ।।३।। ( यह पद प्रस्तुत रचना में नहीं है) गज को जब ग्राह ग्रस्यो, दु:शासन चीर खस्यो। सभा बीच कृष्ण कृष्ण द्रौपदी पुकारी ।।४।। इतने हरि आये गये, बसनन आरूढ़ भये। सूरदास द्वारे ठाड़ौ आंधरों भिखारी ।।५।। दीनन दुख: हरन देत, संतन हितकारी..
आज कोई गीत नहीं! आज महफिल के श्रोताओं के लिये एक पहेली। पंडित वेंकटेश कुमार का गाया हुआ राग हमीर का यह वीडियो देख कर बताईये राग हमीर पर कौनसा प्रसिद्ध हिन्दी (फिल्मी) गीत ढला हुआ है?
नहीं पहचान पाये! चलिये पं नचिकेता कुमार को भी सुन लीजिये इस बार तो जरूर पहचान सकेंगे।
पहचान लिया हो तो बताइये यह राग सुनने में आपको कैसा लगा?
आप रफी साहब का गाया अंग्रेजी गीत तो कबाड़खाना और अल्पना जी के ब्लॉग व्योम के पार पर सुन चुके हैं पर क्या आपने यह गीत सुना है?
the she i love is the beautyfull- beautyfull dream come true i love her love love love her... जी हां रफी साहब ने Although We Hail from Different Land के अलावा यह अंग्रेजी गीत भी गाया हुआ है। यह गीत हम काले हुए तो क्या हुआ दिलवाले हैं की तर्ज पर ढ़ला हुआ है, लीजिये सुनिये।
Download Link इस गीत के बारे में ज्यादा जानकारी उप्लब्ध नहीं है, शायद मूर्ति साहब कुछ मदद करें, सुन रहे हैं ना मूर्ति साहब?
जगजीत- चित्रा की जोड़ी ने भी क्या खूब गज़लें गाई है, ज्यादातर तो आपने सुनी होगी पर कुछ ऐसी भी है जो आजकल कहीं सुनाई नहीं देती।जैसे कि यह..
तारीफ़ उस ख़ुदा की जिसने जहां बनाया, कैसी ज़मीं बनाई क्या आसमां बनाया, मिट्टी से बेलबूटे क्या ख़ुशनुमा उग आये, पहना के सब्ज़ ख़िल्लत, उनको जवां बनाया, सूरज से हमने पाई गर्मी भी रोशनी भी, क्या खूब चश्मा तूने, ए महरबां बनाया, हर चीज़ से है उसकी कारीगरी टपकती, ये कारख़ाना तूने कब रायबां बनाया,