मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले मेरे पसन्दीदा कुछ गीत… (भाग-1)
सुरेश चिपलूनकर की कलम से... पहेली
Film Mother India, Mehboob, Nargis and Sunil Dutt
हिन्दी फ़िल्मों ने हमें हजारों मधुर गीत दिये हैं जिन्हें सुन-सुनकर हम बड़े हुए, इन्होंने हमारी भावनाओं पर राज किया है। हर मौके, माहौल और त्यौहार के लिये हमारी फ़िल्मों में गीत उपलब्ध हैं। इधर पिछले कुछ वर्षों में देखने में आया है कि हमारी फ़िल्मों से “गाँव” नाम की अवधारणा गायब होती जा रही है। गाँव की “थीम” या “स्टोरी” पर आधारित फ़िल्में मल्टीप्लेक्स के कारण कम होते-होते लगभग लुप्त ही हो गई है। फ़िल्म निर्माता और निर्देशक भी फ़िल्म की लागत तत्काल वसूलने और भरपूर मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में फ़िल्मों में गाँवों को पूरी तरह से नकारते जा रहे हैं। फ़िल्मों में गाँवों को दर्शाया भी जाता है तो बेहद “डिजाइनर” तरीके से और कई बार भौण्डे तरीके से भी। इस बात पर लम्बी बहस की जा सकती है कि फ़िल्मों का असर समाज पर पड़ता है या समाज का असर फ़िल्मों पर, क्योंकि एक तरफ़ जहाँ वास्तविकता में भी अब आज के गाँव वे पुराने जमाने के गाँव नहीं रहे, जहाँ लोग निश्छल भाव रखते थे, भोले-भाले और सीधे-सादे होते थे। “पंचायती राज की एक प्रमुख देन” के रूप में अब आधुनिक जमाने के गाँव और गाँव के लोग विद्वेष, झगड़े, राजनीति और जातिवाद से पूरी तरह से ग्रसित हो चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ़ कुछ “आधुनिक” कहे जाने वाले फ़िल्मकारों की मानसिकता के कारण ऐसी फ़िल्में बन रही हैं जिनमें भारत या भारत का समाज कहीं दिखाई नहीं देता। कोई बता सकता है कि “धूल का फ़ूल” के समय अथवा “दाग” फ़िल्म के समय तक भी “बिनब्याही माँ” की अवधारणा समाज में कितनी आ पाई थी? लेकिन उस वक्त उसे फ़िल्मों में दिखाकर समाज में एक “ट्रेण्ड” बनाया गया, ठीक वही मानसिकता आज “दोस्ताना” नाम की फ़िल्म में भी दिखाई देती है, कोई बता सकता है कि भारत जैसे समाज में “समलैंगिकता” अभी किस स्तर पर है? लेकिन “आधुनिकता”(?) के नाम पर यह अत्याचार भी सरेआम किया जा रहा है। जबकि असल में समलैंगिकता या तो एक “मानसिक बीमारी” है या फ़िर “नपुंसकता का ही एक रूप”। बहरहाल विषयान्तर न हो इसलिये “सिनेमा का असर समाज पर या समाज का असर फ़िल्मों पर” वाली बहस फ़िर कभी…Film Mother India, Mehboob, Nargis and Sunil Dutt
कई पुरानी फ़िल्मों में गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले बहुत सारे गीत पेश किये गये हैं, जिनमें गाँव के स्थानीय भाषाई शब्द बहुतायत से तो मिलते ही हैं, उनका फ़िल्मांकन भी ठेठ देसी अन्दाज में और विश्वसनीय लगने वाले तरीके से किया गया है। ऐसे की कुछेक गीत इस श्रृंखला में पेश करने का इरादा है, सौंधी मिट्टी की खुशबू वाले मेरे पसन्दीदा गीतों में सबसे पहला है फ़िल्म मदर इंडिया का गीत “गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…”। यह गीत फ़िल्म मदर इंडिया (1957) में सुनील दत्त पर फ़िल्माया गया है, गाया है मोहम्मद रफ़ी और शमशाद बेगम ने, लिखा है शकील बदायूंनी ने और ठेठ देसी संगीत दिया है नौशाद ने। पहले यह गीत सुनिये और देखिये, फ़िर इस पर बात करते हैं-
उल्लेखनीय है कि यह गीत भारतीय फ़िल्म इतिहास की सबसे महान फ़िल्म कही जाने वाली कालजयी “मदर इंडिया” का है, जिसके निर्देशक थे महबूब खान। कहा जाता है कि महबूब खान एकदम अनपढ़ थे और अक्सर बीड़ी पीते हुए सेट पर काम करने वालों से “तू-तड़ाक” की आम बोलचाल वाली भाषा में बात किया करते थे। लेकिन एक फ़िल्मकार के तौर पर उनका ज्ञान बहुत से पढ़े-लिखों से कहीं ज्यादा था। इस गीत को भी उन्होंने ठेठ गंवई अन्दाज में फ़िल्माया है। बैलगाड़ी की दौड़ अब धीरे-धीरे भारत में एक दुर्लभ दृश्य बन चुका है। मुझे नहीं पता कि कितने पाठकों ने बैलगाड़ी की सवारी का अनुभव लिया है, लेकिन जो व्यक्ति बैलगाड़ी या तांगे की सवारी कर चुका हो, उसे यह गीत बेहद “नॉस्टैल्जिक” लगता है। गीत में सुनील दत्त, हीरोईन (शायद यह मधुबाला की बहन हैं) से छेड़छाड़ करते दिखाया गया है, साथ में बैलगाड़ी की दौड़ भी चलती रहती है। उड़ती हुई धूल, पात्रों की ग्रामीण वेशभूषा, गीत के बोलों का सरलता लिये हुए प्रवाह और नौशाद की मस्ती भरी धुन, सब मिलकर एक समाँ बाँध देते हैं। महबूब और नौशाद की जोड़ी ने यादगार संगीत वाली फ़िल्में दीं, जैसे अनमोल घड़ी, अन्दाज़, आन और अमर। इस फ़िल्म के एक और गीत “दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा…” को नौशाद पहले शमशाद बेगम से ही गवाना चाहते थे, लेकिन अन्ततः शकील की मध्यस्थता से लता मंगेशकर से यह गवाया गया। गीत में गँवई शब्दों का बेहतरीन उपयोग किया गया है और चित्रांकन तथा फ़िल्म के माहौल में “तोसे”, “नथनी”, “डगरिया”, “लोगवा” जैसे धरतीपकड़ शब्द मिठास घोलते हैं… गीत के बोल कुछ इस प्रकार से हैं –
खट-खुट करती, छम-छुम करती गाड़ी हमरी जाये
फ़र-फ़र भागे सबसे आगे, कोई पकड़ ना पाये…
(खट-खुट और छम-छुम जैसे “रीयल” शब्दों का सुन्दर उपयोग)
ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे… (2)
जिया उड़ा जाये, लड़े आँख रे होय…(2)
(1) दिल खाये हिचकोले, गाड़ी ले चल हौले-हौले
बिन्दिया मोरी गिर-गिर जाये, नथनी हाले-डोले
हो, देख नजर ना लागे गोरी काहे मुखड़ा खोले
हो नैनों वाली घूंघट से ना झाँक रे…
गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…।
बीच में थोड़ी चुहलबाजी – अररररर, मोरी लाल चुनरिया उड़ गई रे,
मोरी कजरे की डिबिया गिर गई…
(2) हवा में उड़ गई मोरी चुनरिया, मिल गईं तोसे अँखियाँ
बलमा मिल गई तोसे अँखिया…
गोरा बदन मोरा थर-थर काँपे, धड़कन लागीं छतियाँ
रामा धड़कन लागी छतियाँ…
ओ, अलबेली बीच डगरिया ना कर ऐसी बतियाँ…2
हो सुने सब लोगवा, कटे नाक रे… हाय
गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…
खट-खुट करती, छम-छुम करती गाड़ी हमरी जाये
फ़र-फ़र भागे सबसे आगे, कोई पकड़ ना पाये…
कुछ बातें इस फ़िल्म के बारे में… फ़िल्म मदर इंडिया उस जमाने की “ब्लॉक बस्टर” हिट थी, जिसने उस समय 4 करोड़ का व्यवसाय किया था, जिस रिकॉर्ड को बाद में मुगले-आजम ने तोड़ा। मदर इंडिया से नरगिस ने यह भी साबित किया कि वह राजकपूर की फ़िल्मों के बाहर भी “स्टार” हैं, वैसे यह भी एक संयोग ही है कि नरगिस को महबूब ने ही सबसे पहले फ़िल्म तकदीर (1943) में साइन किया था, लेकिन फ़िर काफ़ी समय तक नरगिस सिर्फ़ राजकपूर की फ़िल्मों में ही दिखाई दीं। एक तरह से देखा जाये तो यह फ़िल्म राजकुमार, सुनील दत्त और राजेन्द्र कुमार तीनों के लिये ही पहली बड़ी सफ़लता थी। शुरुआत में सुनील दत्त का रोल तत्कालीन हॉलीवुड में काम करने वाले एक भारतीय “साबू” करने वाले थे, लेकिन डेट्स की समस्या के कारण सुनील दत्त इस फ़िल्म में आये और एक दुर्घटना में आग से बचाकर अपने से बड़ी उम्र की नरगिस का दिल जीता और बाद में जीवनसाथी बनाया। महबूब को सम्मान के तौर पर, फ़िल्म काला बाजार में देव आनन्द फ़िल्म मदर इंडिया के ही टिकट ब्लैक करते दिखाये गये हैं।
इस गीत को कभी भी सुना जाये, हमेशा यह सीधे गाँव में ले जाता है। जो मस्ती, भोलापन, अल्हड़पन और सादगी इस प्रकार के गीतों में है, वह आजकल देखने को नहीं मिलती, न अब वैसे गाँव रहे, न ही गाँव पर लिखने वाले प्रेमचन्द जैसे महान लेखक रहे, बदलते वक्त ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है… जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती।
(अन्त में पाठकों के लिये एक पहेली – इस श्रृंखला के अगले तीन गीतों के बारे में अपना-अपना अंदाजा बतायें, मैं देखना चाहता हूँ कि मेरी पसन्द किस-किस से मिलती है, Hint के तौर पर यही थीम है – “मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले मधुर गीत”)
नोट – “महफ़िल के सदस्य”, “यूनुस भाई”, “रेडियोनामा के सदस्य” और “संजय पटेल” जी इस पहेली प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते… हाँ, इस गीत पर टिप्पणी अवश्य कर सकते हैं…
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12 टिप्पणियाँ/Coments:
पहेली का जबाब तो बाद में देंगे अभी तो आलेख और अवलोकन बहुत पसंद आया.
बड़ा ही खूबसूरत गीत है. आपने हमें बैठे बैठे ५० साल पीछे झाँकने का अवसर दिया. आभार.
http://mallar.wordpress.com
आप का लेख ओर चरचा बहुत ही अच्छी लगी , आप के तीन गीत...
१ नया दोर से पहला गीत
२,गगां यमुना से
३ मदर इंदिया से ही
sagar bhai, mitti ki sondhi khushboo wala ye get sunvaane ke liye shukriyaa. Ek geet film "teesri qasam" mei tha...(lali lali doliya mei lali re dulhaniya, piya ki piyari..)
Kabhi sunvaayiye to...!!!
sundar aalekh, achcha laga.
भई हमारे साथ ऐसा अन्याय क्यूं? हमें भी अपनी राय व्यक्त करने का मौका मिलना चाहिये। वरना हम धरने पर बैठेंगे। :)
बहुत ही सुन्दर आलेख! गीत संगीत के बारे में तो आपने इतना कह दिया है कि अब हमारे लिए शब्द ही नहीं बचे।
अभी बहुत से गाने हैं गाँव के माहौल पर, एक एक कर सभी सुनाइये।
आतंकवाद पर वैचारिक युद् जारी रखिये,। आतंकवाद को लेकर जारी अभियान की कङी में मैने एक और विस्फोट अपने ब्लांग पर किया हैं।उम्मीद हैं पंसद आयेगा। आपके विचार पढने का मौका मिला बिंदास हैं। ई0टी0भी,पटना
your blog is very fine......
film dada dil ke tukde tukde kar ke
muskura ke chal deye
jate jate ye to bta ja hum jiyenge kiske liye
dil kehta hai chal unse mil
udte hi kadam ruk jate hai
dil humko kbhi samjhata hai
hum dil ko kbhai samajhate hai
bahut dino k baad ye khazaana paaya hai shukriya Sagar saab.
priy Sagar, Neeraj aur Dr. Prabhat,
Aaj hee aap logon dwara banaya ye blog padhaa, suna aur dekha, behad sundar laga. Main thodee jyaada apekshaa kar rahaa thaa par vaisee koi durlabh vastu naheen mili par jo sankalan hai vo kaabile-taareef hai, iske liye saadhuwad. Meree aur aap logon ki pasand lagta hai ek see aur milti-julti hai. is prayas ke liye dhanyawad. Ek bhajan Surdas ka likha hai:"Hum jaanat hamare sang beetee, ik ik baar saban sang beetee" agar kaheen mile to jaroor bhijawana.
Saprem dhanyawaad
Aapka Shubbhechhoo
Dr. Arun Kumar
arpurster@gmail.com
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