शमशीर बरहना मांग गज़ब
बहादुर शाह ज़फ़र की एक गज़ल- दो आवाजों में
इतने दिनों तक ब्लॉग से दूर रहने के बाद कुछ लिखना बहुत मुश्किल काम है। लेकिन पिछले दिनों इनटरनेट के अमृतमंथन में संगीत रूपी कई अनमोल गीत मिले। कई दिनों से सोच रहा हूँ कि फिर से शुरुआत कैसे करूं लेकिन आखिरकार आज मौका मिल ही गया। एकाद दिन पहले मैं हबीब वली मोहम्मद حبیب ولی محمد का एक गीत शमशीर बरहना मांग गज़ब.. सुनने में आया। यह गीत भारत के आखिरी मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र का है। लेकिन वली मोहम्म्द साहब की आवाज में यह गीत बहुत ही कर्णप्रिय लगा; और मैं इसे यहाँ पोस्ट करने से अपने आप को नहीं रोक पाया। आईये इस सुन्दर गीत को सुनते हैं।
शमशीर बरहना मांग गज़ब, बालों की महक फिर वैसी है
जूड़े की गुन्धावट बहर-ए-खुदा, ज़ुल्फ़ों की लटक फिर वैसी है
हर बात में उस के गर्मी, है हर नाज़ में उस के शोखी है
आमद है कयामत चाल भरी छलने की फड़क फिर वैसी है
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवा, सूरज की किरण है उस पे लिपट
जाली की ये कुरती है वो बला, घोटे की धनक फिर वैसी है
वो गाये तो आफ़त लाये है, सुर ताल में लेवे जान निकाल
नाच उस का उठाये सौ फितने, घुन्घरू की छनक फिर वैसी है
हर बात में उस के गर्मी, है हर नाज़ में उस के शोखी है
आमद है कयामत चाल भरी छलने की फड़क फिर वैसी है
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवा, सूरज की किरण है उस पे लिपट
जाली की ये कुरती है वो बला, घोटे की धनक फिर वैसी है
वो गाये तो आफ़त लाये है, सुर ताल में लेवे जान निकाल
नाच उस का उठाये सौ फितने, घुन्घरू की छनक फिर वैसी है
इस गीत को वनराज भाटिया ने फिल्म मण्डी (1983) के लिए संगीतबद्ध किया है और गाया है प्रीती सागर ने। आईये इसे भी सुनते हैं
11 टिप्पणियाँ/Coments:
यह गीत शायद भूमिका फिल्म का हैं, मंडी फिल्म का नही। शायद सही जानकारी विविध भारती के युनूस (खान)जी दे सके..
वैसे भूमिका फिल्म के लिए वनराज भाटिया का संगीत बहुत पसंद किया गया था।
अन्नपूर्णा
वाह, सुनाने का आभार।
बहुत सुंदर गीत किसी भी फ़िल्म का हो... आप का धन्यवाद
गीत का ये नायब रूप सुन कर
बहुत बहुत सुकून हासिल हुआ ...
वाह !
और
shaayad
भूमिका फिल्म में
ये गीत नहीं है ...
बहुत ख़ूब !मज़ा आ गया !
धन्यवाद !
बहुत खूब ग़ज़ल ढूँढ कर लाए हैं आप। पढ़ने में ही लुत्फ़ आ गया तो सुनने में तो आएगा ही।
बेहद खूबसूरत... पढने और सुनने से आनन्द दुगुना हो गया.
मंडी का ही गीत है। हबीब वली की आवाज़ में बरसों से सुनते आ रहे हैं। अच्छा लगा दोनों संस्करण एक साथ सुनकर।
बस एक ही बात।
सागर नाहर और लिखें। जल्दी जल्दी।
बहुत बहुत आभार, सागर जी,
इतने दिनों बाद आपको फिर ब्लॉग क्षेत्र में सक्रिय होते देख बहुत अच्छा लगा. ऐसे ही बने रहिएगा और हम सब संगीत प्रेमियों को आनंद दिलाते रहिये.
उस्ताद हबीब वली मोहम्मद साहेब की आवाज़ से हमारा परिचय लगभग ४० वर्ष पहले हुआ था. उनकी जादूभरी आवाज़ सुनते ही मैं और मुझसे भी ज़्यादा मेरी अर्धांगिनी बिलकुल शैदा हो गए.
१. आशियां जल गया, गुलिस्तान लुट गया ...;
२. तनी धीरे से बोलो...;
३.लगता नहीं है जी मेरा..;
४. गजरा बना के ले आ मालिनिया...; आदि आदि. वाह! क्या बात है!
उनके गुलदस्ते से और भी फूल चुन कर लाइए और सभी रसिकों को रसास्वादन कराएँ, इस अनुरोध के साथ.
अवध लाल
Ye geet preeti sagar ki awaz mein yahan pe mil nahi raha hai. Kripaya madad karein.
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