दिल ही बुझा हुआ हो तो फ़स्ले बहार क्या: मुकेश की कम सुनी-अनसुनी गज़ल
हिन्दी
फिल्मों के लिए शकील बूंदायूनी, हसरत जयपुरी, साहिल लुधियानवी, नक़्श ल्यालपुरी, निदा
फ़ाज़ली, नीरज, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख्तर, मख़दूम मोईनुद्दीन, गुलज़ार, शहरयार, फ़ैज़ अहमद
’फ़ैज़’ जैसे कई गीतकारों-शायरों ने गज़लें लिखी है तो मिर्ज़ा गालिब, मीर तकी ’मीर’ (
दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया- बाज़ार), बहादुर शाह ‘ज़फ़र’, जैसे कई legendary शायरों
की गज़लें भी अक्सर फिल्मों में आती रही है- रहती हैं।
इन
गज़लों को अनिल विस्वास, मदनमोहन, नौशाद, एस. एन. त्रिपाठी, रवि, रोशन और कई संगीतकारों
ने संगीतबद्ध कर अमर कर दिया है, जो बहुत चर्चित हैं और अक्सर हम उन्हें सुनते रहते
हैं।
आज
मैं जिस गज़ल को पोस्ट कर रहा हूँ वह उस फिल्म की है जिससे महान गायक मुकेश जीने बॉलिवुड
में अभिनेता-गायक के रूप में अपनी शुरूआत की थी। यह फ़िल्म थी 1941 में बनी "निर्दोष"।
गज़ल को लिखा है नीलकांत तिवारी नेऔर संगीतकार हैं अशोक घोष।
दिल
ही बुझा हुआ है तो फ़सले बहार क्या
साक़ी
हँसा, शराब हँसा, अब बजार क्या
दुनिया
से ले चला है जब हसरतों का बोझ
काफ़ी
नहीं है, सर पे गुनाहों का बोझ क्या
बाद-ए-पना
क़ुज़ून है नाम-ओ-निशां किसी के
जब
हम नहीं रहे तो रहेगा मज़ार क्या
दिल
ही बुझा हुआ ..
पहली टिप्पणी दें/Be a first Commentator
Post a Comment
आपकी टिप्प्णीयां हमारा हौसला अफजाई करती है अत: आपसे अनुरोध करते हैं कि यहाँ टिप्प्णीयाँ लिखकर हमें प्रोत्साहित करें।