एक ही बात ज़माने की किताबों में नहीं
रफी साहब की एक दुर्लभ गज़ल
आज आपके लिए मो. रफी साहब की एक दुर्लभ गैर फिल्मी गज़ल, इसे लिखा है सुदर्शन फ़ाकि़र ने और संगीतकार के बारे में जानकारी नहीं है। अगर आप इस गज़ल के संगीतकार के बारे में जानते हैं तो टिप्पणी लिख कर बताईये। मैं उसे बाद में पोस्ट में जोड़ दूंगा।एक ही बात जमाने की किताबों में नहीं
जो ग़म-ए-दोस्त में नशा है शराबों में नहीं
एक ही बात
हुस्न की भीख ना मांगेगे, ना ज़लवों की कभी-2
हम फ़कीरों से मिलो, खुल के, हिज़ाबों में नहीं
एक ही बात
हर जगह फिरते है, आवारा खयालों की तरह-2
ये अलग बात है, हम आपके ख्वाबों में नहीं-2
एक ही बात
ना डुबो सागर-ओ-मीना में, ये गम ए "फ़ाकिर"
के मकाम इनका दिलों में है, शराबों में नहीं
एक ही बात जमाने की किताबों में नहीं
एक ही बात
पिछली पोस्ट में दानिश साहब ने पूछा था कि क्या ये वही वली मोहम्म्द साहब हैं जिन्होने गाँव की गोरी के गीत लिखे थे? मेरी जानकारी में ये वली साहब गीतकार नहीं है। विकीपीडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार वली मोहम्म्द साहब सिर्फ गायक ही थे। फिर भी यूनुस भाई शायद ज्यादा जानकारी दे सकें।
इसी पोस्ट में प्रवीण जी ने दीवाना फिल्म के गीत तीर चलाते जायेंगे की फरमाईश की थी उनके लिए यह वीडियो हाजिर है।